हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi).

हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi)- हकीम खां सूरी ने मुसलमान होते हुए भी अकबर की सेना से लोहा लिया और महाराणा प्रताप को विजय बनाया अफ़गान बादशाह शेर शाह सूरी के वंशज थे. जब हकीम खां सूरी को पता लगा कि मेवाड़ पर संकट आया हैं तो वह 1000 अफगानी सैनिकों के साथ मेवाड़ पहुंचे ताकि महाराणा प्रताप की सहायता कर सके.

इस लेख में हम हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi) पढ़ेंगे ताकि यह जान सके कि हकीम खां सूरी कौन थे? (hakim khan suri kaun tha) हकीम खां सूरी की मृत्यु कैसे हुई? और हकीम खान सूरी और महाराणा प्रताप की दोस्ती कैसे हुई?

हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi)

पूरा नाम-सेनापति हकीम खां सूरी पठान (Hakim Khan Suri).
जन्म-1538 ईस्वी.
जन्म स्थान-दिल्ली.
पिता का नाम-खैसा खान सूरी.
माता का नाम-बीबी फातिमा.
मृत्यु कब हुई-18 जून 1576.
मृत्यु स्थान-हल्दीघाटी युद्ध में.
मूल निवासी-अफगान.
वंशज-अफ़गान बादशाह शेर शाह सूरी के वंशज.
(Hakim Khan Suri History In Hindi)

एक समय था जब भारत के सिंहासन पर पठानों का राज हुआ करता था. मगर जब मुगलों ने आक्रमण किया तो उन्होंने पठानों को यहां से भगा दिया और अपना एकाधिकार जमा लिया, महाराणा प्रताप सभी धर्मों का सम्मान करने वाले थे. हकीम खान सूरी और महाराणा प्रताप की मित्रता इस बात का सबूत है.

हकीम खां सूरी महाराणा प्रताप की सेना में सेनापति पद पर थे जो हरावल (सेना की पहली पंक्ति) का नेतृत्व करते थे. इतना ही नहीं हकीम खां सूरी मेवाड़ के मायरा अर्थात शास्त्रागार के मुखिया भी थे. हकीम खां सूरी इकलौते मुस्लिम सेनापति थे जिन्होंने मुग़ल सेना का सामना किया, जबकि कई राजपूत उस समय अकबर की सेना का साथ दे रहे थे. हकीम खां सूरी का नाम न सिर्फ मेवाड़ बल्कि भारत के इतिहास में भी सदा के लिए अमर हैं. हकीम खां सूरी का इतिहास इस बात का गवाह हैं कि उन्होंने राष्ट्र को प्राथमिकता दी.

जब अकबर की विशाल सेना महाराणा प्रताप से लोहा लेने के लिए मेवाड़ की तरफ बढ़ रही थी तब हकीम खां अपनी छोटी से सेना के साथ मेवाड़ की सहायता के लिए निकल पड़े. हकीम खां सूरी का हल्दीघाटी के युद्ध में बड़ा योगदान रहा.

महाराणा प्रताप और हकीम खान सूरी की दोस्ती कैसे हुई?

महाराणा प्रताप और हकीम खां सूरी की दोस्ती से लेकर हल्दीघाटी के युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने तक कि कहानी बहुत ही रोचक और मज़ेदार हैं. दरअसल भारत में मुग़लों से पहले अफगानी आए. जब भारत में मुग़लों ने घुसपैठ की तब पठान शेर शाह सूरी का राज हुआ करता था. मुग़लों ने अफगानों का पराजित कर अपनी हुकूमत कायम की. तभी से पठान मुग़लों के खिलाफ हो गए.

महाराणा प्रताप और हकीम खां सूरी की मित्रता भी इसी वजह से हुई थी. मुग़ल मेवाड़ के भी दुश्मन थे तो पठानों के भी अतः दुश्मन के दुश्मन आपस में दोस्त बन गए. हकीम खां सूरी एक विश्वसनीय व्यक्ति थे, इतना ही नहीं उनका सम्बन्ध शेर शाह सूरी से होने के कारण महाराणा प्रताप को उन पर बहुत विश्वास भी था, यहीं मुख्य कारण था जिसके चलते महाराणा प्रताप और हकीम खान सूरी की दोस्ती हुई.

एक और महाराणा प्रताप के जीवन पर नजर डालें तो ज्ञात होता हैं कि महाराणा प्रताप धर्मनिरपेक्षता के बड़े पक्षधर थे. महाराणा प्रताप शुरू से ही धर्म, पंथ, रंग , जाति, लिंग सबसे ऊपर उठे हुए थे. महाराणा प्रताप और हकीम खां सूरी की दोस्ती धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समरसता का जीता जागता उदाहरण हैं.

यह भी कह सकते हैं कि साम्प्रदायिक सौहार्द्र व आत्म स्वाभिमान के लिए हकीम खां सूरी महाराणा प्रताप की सेना में शामिल हुए जो उनकी दोस्ती का कारण भी बना.

हल्दीघाटी युद्ध में हकीम खां सूरी का योगदान

एक समय था जब भारत में पठानों का राज था, लेकिन मुगलों ने उनको खदेड़ दिया इसलिए पठानों के मन में यह बात जो चुभी हुई थी कि कैसे भी करके इनको सत्ता से बाहर किया जाए। इसी बात का बदला लेने के लिए शेरशाह सूरी का पुत्र हकीम खां सूरी मेवाड़ा पहुंचा. उस समय महाराणा उदय सिंह अंतिम अवस्था में थे, उन्होंने हकीम खां सूरी को अपनी सेना में शामिल कर लिया.

हल्दीघाटी में हुए युद्ध में कई राजपूत शासक जहाँ अकबर की सेना में शामिल होकर महाराणा प्रताप के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे जबकि हकीम खां सूरी पूरी वीरता के साथ महाराणा प्रताप की तरफ से मुगलों से लोहा ले रहे थे. यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात थी.

18 जून 1576 का दिन था जब महाराणा प्रताप और अकबर की सेना ने पहली बार आमना सामना किया. हकीम खां सूरी के नेतृत्व वाली सेना की टुकड़ी ने सबसे पहले दावा बोला और कई कोस तक मुगल सेना को खदेड़ दिया.

अकबर की ओर से एक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे लूणकरण नामक राजा ,सेना सहित युद्ध मैदान से भाग निकले। यह बात अकबर की ही सेना में शामिल बदायूनी ने एक लेख लिखा था जिससे साबित होती है.

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महाराणा प्रताप से उनकी गहरी मित्रता हो गई और महाराणा प्रताप ने उनकी प्रतिभा को पहचान लिया और उनको महाराणा प्रताप ने अपनी सेना का मुख्य सेनापति नियुक्त कर दिया. कई सामंतों ने और मंत्रियों ने इस बात का विरोध किया और इसके पीछे यह तर्क दिया कि अकबर और हकीम खां सूरी एक ही धर्म के हैं.

ऐसे में इनको महत्वपूर्ण पद देना कतई मेवाड़ के हित में नहीं होगा लेकिन हकीम खां सूरी ने महाराणा प्रताप को आश्वासन दिया कि “हे राणा जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक यह तलवार पठान के हाथ से नहीं छूटेगी और मुगल सेना के सफाई तक यह नहीं रुकेगी”.

हकीम खान सूरी को मुख्य सेनापति नियुक्त करना भी महाराणा प्रताप की युद्ध नीति का एक हिस्सा था. इन्होंने तमाम मुगल विरोधी लोगों को एकत्रित किया और मुगलों के खिलाफ खड़ा कर दिया. इस युद्ध में सिर्फ हकीम खान सूर ही नहीं, जालौर के ताज खान ने भी महाराणा प्रताप का साथ दिया था. गोगुंदा नामक स्थान महाराणा प्रताप का मुख्य सैन्य अड्डा था.

अकबर ने अपनी सेना का सेनापति बनाकर जयपुर के मानसिंह को महाराणा प्रताप से युद्ध के लिए भेजा. मानसिंह 80000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ खमनोर पहुंचा. ऐसा कहा जाता है कि इस समय महाराणा प्रताप के पास मात्र 20000 सैनिक ही थे, जिनमें 3000 घुड़सवार भी शामिल थे. महाराणा प्रताप के ज्यादातर सैनिक राणा पूंजा के नेतृत्व में धनुषधारी थे.

मानसिंह की सेना में हरावल का नेतृत्व जगन्नाथ कछवाहा कर रहा था, उनके साथ अली आसिफ खान, माधव सिंह, मुल्लाह काजी खान, बारां के सैयद और सीकरी के शहजादे शामिल थे.

वहीं दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की सेना में हरावल का नेतृत्व हकीम खां सूरी कर रहे थे। इनके साथ डोडिया के सामंत भीम सिंह, रामदास राठौड़, ग्वालियर के नरेश राम सिंह तोमर, भामाशाह और ताराचंद शामिल थे.

अलबदायूनी नामक एक सैनिक था जो कि मुगल सेना की तरफ से लड़ाई लड़ रहा था. उसने ही इस युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी लेख लिखा था, उसी के आधार पर इस युद्ध का इतिहास बताया जाता है.

युद्ध धीरे-धीरे भीषण होता गया और महाराणा प्रताप की सेना ने इतनी मारकाट मचाई की मुगल सैनिक भागने लगे और मुगल सेना में हाहाकार मच गया। हकीम खां सूरी बिजली की रफ्तार से मुगल सेना का सफाया कर रहे थे. इसके साथ ही राणा पूंजा के नेतृत्व में सेना की टुकड़ी मुगलों के ऊपर टूट पड़ी.

मेहतार खान नामक मुगल सेना का एक नेतृत्वकर्ता यह चिल्लाता हुआ और तलवार चलाता हुआ युद्ध मैदान में आया कि शहंशाह अकबर पधार रहे हैं.

हालांकि यह बात पूर्णतया झूठ थी लेकिन युद्ध नीति का एक हिस्सा थी. ऐसे में मुगल सैनिक जो जान बचाकर भाग रहे थे वह पुनः युद्ध भूमि में लौट आए. साथ ही महाराणा प्रताप की सेना ने युद्ध करने की बजाए खुद को सुरक्षित रखना बेहतर समझा क्योंकि इनके पास मात्र 8000 सैनिक ही बचे थे.

ऐसे में झाला मन्ना महाराणा प्रताप के पास पहुंचे और उनका मुकुट धारण करके युद्ध करने लगे। मुगल सेना ने उनको महाराणा प्रताप समझकर उन पर टूट पड़ी और इस युद्ध में झाला मन्ना शहीद हुए। इसी शहादत की वजह से झाला मन्ना को याद किया जाता है.

 महाराणा प्रताप सुरक्षित युद्ध भूमि से बाहर निकल गए और हकीम खां सूरी अंत तक दुश्मनों से लोहा लेते रहे और अंत में वीरगति को प्राप्त हुए. हालांकि इनकी मृत्यु के बाद भी इनके हाथ से तलवार नहीं छूटी जैसा कि इन्होंने महाराणा प्रताप को वचन दिया था कि जब तक जिंदा रहूंगा हाथ से तलवार नहीं छूटेगी. इनको तलवार के साथ ही दफनाया गया.

दूसरी तरफ जहां राजस्थान के बड़े-बड़े राजपूत राजाओं ने महाराणा प्रताप का साथ नहीं दिया जिनमें जयपुर के सवाई मानसिंह का नाम मुख्य है. वहीं दूसरी तरफ असली पठान हकीम खां सूरी ने महाराणा प्रताप का साथ देकर दोगले शासकों को करारा जवाब दिया.

जब तक इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम अमर रहेगा, इनके साथ ही हकीम खां को भी याद किया जाएगा। राष्ट्र की एकता अखंडता और सुरक्षा की जब जब बात होगी महान सेनापति हकीम खां सूरी का नाम लोगों की जबान पर जरूर आएगा.

हकीम खां सूरी कि मृत्यु कब और कैसे हुई?

हकीम खां कि मृत्यु मेवाड़ और महाराणा प्रताप दोनों के लिए बड़ी क्षति थी. जहाँ महाराणा प्रताप ने एक वीर और विश्वसनीय सेनापति को खो दिया वहीँ मेवाड़ को इनकी जगह नया योद्धा मिलना मुश्किल था. जब अकबर की सेना ने मेवाड़ की ओर कुच किया तब हकीम खां सूरी को भी इसकी जानकारी हुई और बिना देरी किए वह अपनी छोटी सी सेना के साथ मेवाड़ पर आए संकट का सामना करने के लिए निकल पड़े.

हकीम खां सुरी को मृत्यु का कोई भय नहीं था. 18 जून 1576 ईस्वी के दिन हल्दीघाटी के मैदान में महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बिच भयंकर युद्ध हुआ. इस युद्ध में हकीम खां सूरी सेनापति थे जो हरावल का नेतृत्व कर रहे थे. कुछ मेवाड़ी वीर खुश नहीं थे लेकिन हकीम खां सूरी ने महाराणा प्रताप को आश्वासन दिया कि जब तक जान हैं मैं पूरी निष्ठां के साथ मेवाड़ की रक्षा करूँगा और अपने प्राणों की बाजी लगा दी.

हल्दीघाटी के युद्ध में बड़ी ही वीरता का परिचय देते हुए 18 जून 1576 ईस्वी के दिन हकीम खां सूरी की मृत्यु हो गई. हकीम खां सूरी की मृत्यु मुग़ल सेना से लोहा लेते हुए हुई, इस युद्ध में महाराणा की जीत हुई.

हकीम खां सूरी का मकबरा

हकीम खां सूरी का मकबरा राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में हल्दीघाटी दर्रे के समीप स्थित हैं. यही वह स्थान हैं जहाँ पर बड़ी ही वीरता के साथ लड़ते हुए हकीम खां सूरी वीरगति को प्राप्त हुए थे. हकीम खां सूरी का इतिहास में नाम हमेशा के लिए अमर हो गया. हकीम खां सूरी का मकबरा उनके त्याग, बलिदान और वीरता का परिचायक हैं. हिन्दू हो या मुस्लिम जो भी हल्दीघाटी में जाते है हकीम खां सूरी की समाधी पर जाकर जरूर नमन करते हैं.

हकीम खां सूरी का मकबरा और समाधी उनके व्यक्तित्व का गुणगान कर रही हैं. हकीम खां सूरी का मकबरा या समाधी वर्तमान में हल्दीघाटी (राजसमंद,राजस्थान) स्थित हैं.

हकीम खां सूरी को तलवार के साथ दफनाया गया था.

हकीम खां सूरी की मजार/मकबरा/ समाधी की मुख्य बातें-

1. सिर धड़ से अलग हो जाने के बाद भी हकम खां सूरी लड़ते रहे, जहाँ उनका धड़ गिरा उसी जगह उनका मकबरा बनाया गया.

2. हकीम खां सूरी को उनकी तलवार के साथ ही दफनाया गया और उन्हें पीर का दर्जा दिया गया.

3. हकीम खां सूरी कि समाधी पर हिन्दू-मुस्लिम माथा टेकते हैं.

4. प्रतिवर्ष 18 जून के दिन मुस्लिम समाज के लोग यहाँ पर धार्मिक कार्यक्रम करते हैं.

हकीम खां सूरी से सम्बंधित बार-बार पूछे जाने वाले प्रश्न-उत्तर

[1] हकीम खां सूरी का जन्म कब हुआ था?

उत्तर- हकीम खां सूरी का जन्म 1538 ईस्वी में दिल्ली में हुआ था.

[2] हकीम खां सूरी की माता का नाम क्या था?

उत्तर- हकीम खां सूरी की माता का नाम बीबी फातिमा था.

[3] हकीम खां सूरी के पिता का नाम क्या था?

उत्तर- हकीम खां सूरी के पिता का नाम खैसा खान सूरी था.

[4] हकीम खां सूरी की मृत्यु कैसे हुई?

उत्तर- हल्दीघाटी के युद्ध में दुश्मनों से लोहा लेते हुए हकीम खां सूरी का सर धड़ से अलग हो गया लेकिन फिर भी हाथ में तलवार लिए लड़ते रहे. कुछ समय तक लड़ने के बाद 21 जून 1576 के दिन वीर सेनापति हकीम खां सूरी की मृत्यु हो गई.

[5] हाकिम खान सूरी का मकबरा कहाँ है?

उत्तर- हकीम खां सूरी का मकबरा राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में हल्दीघाटी दर्रे के समीप स्थित हैं.

[6] महाराणा प्रताप का एकमात्र मुस्लिम सेनापति कौन था?

उत्तर- महाराणा प्रताप के एकमात्र सेनापति का नाम हकीम खां सूरी था.

[7] हकीम खां सूरी किसकी सेना का प्रमुख सेनापति था?

उत्तर- हकीम खां सूरी महाराणा प्रताप कि सेना का प्रमुख सेनापति था.

[8] सेना का हरावल दस्ता क्या होता हैं?

उत्तर- किसी भी सेना में हरावल दस्ता प्रथम पंक्ति में लड़ने वाला होता हैं.

[9] महाराणा प्रताप का हरावल दस्ता का मुखिया कौन था?

उत्तर- महाराणा प्रताप का हरावल दस्ता का प्रमुख हकीम खां सूरी था.

दोस्तों उम्मीद करते हैं, हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi) पर आधारित यह लेख आपको अच्छा लगा होगा, धन्यवाद।

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2 thoughts on “हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi).”

  1. यहाँ पर सब हिन्दू राजाओं का वंश दिखाया गया है, ये नहीं दिखाया गया आज हकीम खान सूरी के वंशज कहाँ पर रहते है, ऐसे वीर का पूरा इतिहास दिखाना चाहिए,
    हाँकीम खान सूरी को मेरा सत सत नमन

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