सेनापति हकीम खां सूरी का इतिहास (Hakim Khan Suri History In Hindi)-
हकीम खां सूरी मुसलमान होते हुए भी अकबर की सेना से लोहा लिया और महाराणा प्रताप को विजय बनाया।
अफ़गान बादशाह शेर शाह सूरी के वंशज और महाराणा प्रताप के सबसे करीबी थे हकीम खां सूरी।
1000 अफगानी सैनिकों के साथ मेवाड़ पहुंचे ताकि महाराणा प्रताप की सहायता कर सके।
हकीम खां सूरी का जन्म (Hakim Khan Suri ka janm)- हकीम खां सूरी का जन्म 1538 ईस्वी में ,दिल्ली में हुआ था।
हकीम खां सूरी के माता-पिता (Hakim Khan Suri ke mata pita)- हकीम खां सूरी के पिता का नाम “खैसा खान सूरी” और माता का नाम “बीबी फातिमा” था।
हकीम खां सूरी की मृत्यु कब हुई (Hakim Khan Suri Death)- 21 जून 1576 के दिन हल्दीघाटी में भीषण युद्ध के दौरान ये वीरगति को प्राप्त हुए, मगर मरने से पहले महाराणा प्रताप की जीत सुनिश्चित कर दि थी।
एक समय था जब भारत के सिंहासन पर पठानों का राज हुआ करता था । मगर जब मुगलों ने आक्रमण किया तो उन्होंने पठानों को यहां से भगा दिया और अपना एकाधिकार जमा लिया।
महाराणा प्रताप धर्मनिरपेक्ष थे। हकीम खान सूरी और महाराणा प्रताप की मित्रता इस बात का सबूत है।
हल्दीघाटी में हुए युद्ध में कई राजपूत शासक अकबर की सेना में शामिल होकर महाराणा प्रताप के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे जबकि हकीम खां सूरी पूरी वीरता के साथ महाराणा प्रताप की तरफ से मुगलों से लोहा ले रहे थे।
18 जून 1576 का दिन था जब महाराणा प्रताप और अकबर की सेना ने पहली बार आमना सामना किया। हकीम खां सूरी के नेतृत्व वाली सेना की टुकड़ी ने सबसे पहले दावा बोला और कई कोस तक मुगल सेना को खदेड़ दिया।
अकबर की ओर से एक टुकड़ी का नेतृत्व कर रहे लूणकरण नामक राजा ,सेना सहित युद्ध मैदान से भाग निकले। यह बात अकबर की ही सेना में शामिल बदायूनी ने एक लेख लिखा था जिससे साबित होती है।
एक समय था जब भारत में पठानों का राज था लेकिन मुगलों ने उनको खदेड़ दिया इसलिए पठानों के मन में यह बात जो चुभी हुई थी कि कैसे भी करके इनको सत्ता से बाहर किया जाए।
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इसी बात का बदला लेने के लिए शेरशाह सूरी का पुत्र हकीम खां सूरी मेवाड़ा पहुंचा। उस समय महाराणा उदय सिंह अंतिम अवस्था में थे, उन्होंने हकीम खां सूरी को अपनी सेना में शामिल कर लिया।
महाराणा प्रताप से उनकी गहरी मित्रता हो गई और महाराणा प्रताप ने उनकी प्रतिभा को पहचान लिया और उनको महाराणा प्रताप ने अपनी सेना का मुख्य सेनापति नियुक्त कर दिया।
कई सामंतों ने और मंत्रियों ने इस बात का विरोध किया और इसके पीछे यह तर्क दिया कि अकबर और हकीम खां सूरी एक ही धर्म के हैं।
ऐसे में इनको महत्वपूर्ण पद देना कतई मेवाड़ के हित में नहीं होगा लेकिन हकीम खां सूरी ने महाराणा प्रताप को आश्वासन दिया कि “हे राणा जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक यह तलवार पठान के हाथ से नहीं छूटेगी और मुगल सेना के सफाई तक यह नहीं रुकेगी।
हकीम खान सूरी को मुख्य सेनापति नियुक्त करना भी महाराणा प्रताप की युद्ध नीति का एक हिस्सा था। इन्होंने तमाम मुगल विरोधी लोगों को एकत्रित किया और मुगलों के खिलाफ खड़ा कर दिया।
इस युद्ध में सिर्फ हकीम खान सूर ही नहीं जबकि जालौर के ताज खान ने भी महाराणा प्रताप का साथ दिया था। गोगुंदा नामक स्थान महाराणा प्रताप का मुख्य सैन्य अड्डा था।
अकबर ने सेना का एक बड़ा हिस्सा देकर जयपुर के मानसिंह को महाराणा प्रताप से युद्ध के लिए भेजा। मानसिंह 80000 सैनिकों की विशाल सेना के साथ खमनोर पहुंचा।
ऐसा कहा जाता है कि इस समय महाराणा प्रताप के पास मात्र 20000 सैनिक ही थे जिनमें 3000 घुड़सवार भी शामिल थे। महाराणा प्रताप के ज्यादातर सैनिक राणा पूंजा के नेतृत्व में धनुषधारी थे।
मानसिंह की सेना में हरावल का नेतृत्व जगन्नाथ कछवाहा कर रहा था, उनके साथ अली आसिफ खान, माधव सिंह, मुल्लाह काजी खान, बारां के सैयद और सीकरी के शहजादे शामिल थे।
वहीं दूसरी तरफ महाराणा प्रताप की सेना में हरावल का नेतृत्व हकीम खां सूरी कर रहे थे। इनके साथ डोडिया के सामंत भीम सिंह, रामदास राठौड़, ग्वालियर के नरेश राम सिंह तोमर, भामाशाह और ताराचंद शामिल थे।
अलबदायूनी नामक एक सैनिक था जो कि मुगल सेना की तरफ से लड़ाई लड़ रहा था। उसने ही इस युद्ध का प्रत्यक्षदर्शी लेख लिखा था उसी के आधार पर इस युद्ध का इतिहास बताया जाता है।
युद्ध धीरे-धीरे भीषण होता गया और महाराणा प्रताप की सेना ने इतनी मारकाट मचाई की मुगल सैनिक भागने लगे और मुगल सेना में हाहाकार मच गया।
हकीम खां सूरी बिजली की रफ्तार से मुगल सेना का सफाया कर रहे थे। इसके साथ ही राणा पूंजा के नेतृत्व में सेना की टुकड़ी मुगलों के ऊपर टूट पड़ी।
मेहतार खान नामक मुगल सेना का एक नेतृत्वकर्ता यह चिल्लाता हुआ और तलवार चलाता हुआ युद्ध मैदान में आया कि शहंशाह अकबर पधार रहे हैं।
हालांकि यह बात पूर्णतया झूठ थी लेकिन युद्ध नीति का एक हिस्सा थी। ऐसे में मुगल सैनिक जो जान बचाकर भाग रहे थे वह पुनः युद्ध भूमि में लौट आए।
साथ ही महाराणा प्रताप की सेना ने युद्ध करने की बजाए खुद को सुरक्षित रखना बेहतर समझा क्योंकि इनके पास मात्र 8000 सैनिक ही बचे थे।
ऐसे में झाला मन्ना महाराणा प्रताप के पास पहुंचे और उनका मुकुट धारण करके युद्ध करने लगे। मुगल सेना ने उनको महाराणा प्रताप समझकर उन पर टूट पड़ी और इस युद्ध में जाला मन्ना शहीद हुए। इसी शहादत की वजह से झाला मन्ना को याद किया जाता है।
महाराणा प्रताप सुरक्षित युद्ध भूमि से बाहर निकल गए और हकीम खां सूरी अंत तक दुश्मनों से लोहा लेते रहे और अंत में वीरगति को प्राप्त हुए।
हालांकि इनकी मृत्यु के बाद भी इनके हाथ से तलवार नहीं छूटी जैसा कि इन्होंने महाराणा प्रताप को वचन दिया था कि जब तक जिंदा रहूंगा हाथ से तलवार नहीं छूटेगी । इनको तलवार के साथ ही दफनाया गया।
एक और जहां राजस्थान के बड़े-बड़े राजपूत राजाओं ने महाराणा प्रताप का साथ नहीं दिया जिनमें जयपुर के सवाई मानसिंह का नाम मुख्य है। वहीं दूसरी तरफ असली पठान हकीम खां सूरी ने महाराणा प्रताप का साथ देकर दोगले शासकों को करारा जवाब दिया।
जब तक इतिहास में महाराणा प्रताप का नाम अमर रहेगा, इनके साथ ही हकीम खां को भी याद किया जाएगा। राष्ट्र की एकता अखंडता और सुरक्षा की जब जब बात होगी महान सेनापति हकीम खां सूरी का नाम लोगों की जबान पर जरूर आएगा।
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