चालुक्य साम्राज्य या चालुक्य राजवंश का इतिहास.

चालुक्य साम्राज्य/चालुक्य राजवंश का इतिहास उठाकर देखा जाए तो इस वंश की स्थापना का श्रेय पुलकेशिन प्रथम को जाता है. चालुक्य वंश का प्रथम शासक और संस्थापक पुलकेशिन प्रथम थे.

चालुक्य साम्राज्य या चालुक्य राजवंश की उत्पत्ति को लेकर मतभेद है. वराहमिहिर की कृति “वृहत्संहिता” से प्राप्त जानकारी के अनुसार कुछ विद्वान चालुक्य वंश का संबंध ‘शूलिक’ जाति से मानते हैं. चालुक्य राजवंश ने 543 ईस्वी से लेकर 757 ईस्वी तक शासन किया था.

इतिहासकार बिसेंट ए. स्मिथ चालुक्यों को भारतीय नहीं मानते हैं उनका मत हैं कि ये विदेशी हैं, जिनका सीधा सम्बन्ध उन्होंने चंप नामक जाति ( गुर्जर जाति की शाखा) से जोड़ा हैं. पृथ्वीराज रासो के अनुसार चालुक्य वंश की उत्पत्ति आबू पर्वत (सिरोही, राजस्थान) पर किए गए यज्ञ के अग्निकुंड से बताई गई है.

चालुक्य साम्राज्य या चालुक्य राजवंश का इतिहास इस लेख में हम विस्तृत रूप से जानेंगे.

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चालुक्य साम्राज्य या चालुक्य राजवंश का इतिहास ( Chalukya Rajvansh history in hindi)

चालुक्य वंश का प्रथम शासक कौन था- पुलकेशिन प्रथम.

चालुक्य राजवंश की राजधानी- बादामी.

चालुक्य राजवंश की शासनकाल- 543 ईस्वी से 757 ईस्वी तक.

चालुक्यों की मुख्य भाषा- संस्कृत और कन्नड़.

चालुक्यों का धर्म- हिन्दू, सनातन.

चालुक्यों की शासन प्रणाली- राजशाही.

चालुक्य साम्राज्य के संथापक- पुलकेशिन प्रथम.

चालुक्य शासन वर्ष- 214 वर्ष.

चालुक्य राजवंश का अंतिम शासक- कीर्तिवर्मन द्वितीय.

जैसा कि आपने ऊपर पड़ा चालुक्य राजवंश के इतिहास को लेकर इतिहासकारों में कई तरह के मतभेद हैं. चालुक्य वंश की स्थापना 543 ईस्वी में हुई. नीलकंठ शास्त्री और F. फ्लीट के अनुसार इस राजवंश का नाम “चलक्य” हैं. वहीं दूसरी तरफ आर.जी. भंडारकरे ने इस वंश का नाम चालुक्य बताया है. आपकी जानकारी के लिए बता दें कि चालुक्य शासकों के वंश और उनकी उत्पत्ति को लेकर कोई अभिलेखीय साक्ष्य मौजूद नहीं है.

चालुक्य वंश की तीन शाखाएं हैं, जिनमें से बादामी अथवा वातापी (बीजापुर, कर्नाटक) को इसकी मूल शाखा माना जाता है. बादामी अथवा वातापी के चालुक्यों को प्रारंभिक पश्चिमी चालुक्य के नाम से भी जाना जाता है.

वेंगी अथवा पिष्टपुर (पूर्वी चालुक्य) को चालुक्य राजवंश की दूसरी शाखा के रूप में जाना जाता है जिन्होंने सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में स्वतंत्र राज्य की स्थापना की थी लेकिन अंततः राष्ट्रकूट शासकों की अधीनता स्वीकार कर ली.

चालुक्य साम्राज्य की तीसरी शाखा कल्याणी के चालुक्य थे, जो पश्चिमी चालुक्य के नाम से जाने गए. 10 वीं सदी के अंत तक इन चालूक्यों ने राष्ट्रकूट शासकों के खिलाफ आवाज उठाई और पूर्वी चालूक्यों द्वारा की गई गलती को सुधारते हुए इन्होंने अपने राज्य को राष्ट्रकूट शासकों से पुनः छीन लिया.

जब प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनसांग भारत आया था तो उन्होंने अपनी किताब में चालुक्य शासक पुलकेशिन द्वितीय के बारे में विवरण लिखा और उन्हें क्षत्रिय बताया.

महाकूट अभिलेख के अनुसार चालुक्य राजवंश के संस्थापक पुलकेशिन प्रथम से पहले भी दो शासकों के नाम लिए जाते हैं, जिनमें जय सिंह एवं रनराग का नाम आता है लेकिन कहते हैं कि यह स्वतंत्र शासक नहीं होकर कदंब शासकों के अधीन सामंत हुआ करते थे.

चालुक्य वंश की शाखाएं

चालुक्य वंश की स्थापना 543 ईस्वी में हुई उस समय अधिकतर दक्षिण भारत मौर्य साम्राज्य के अधिनस्थ था. लेकिन धीरे-धीरे मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा, मौर्य साम्राज्य के पतन के साथ ही उनके अधीनस्थ कई राज्य स्वतंत्र होने लग गए. इसका फायदा उठाकर सातवाहन वंश ने एक अलग राज्य की स्थापना की और अपने साम्राज्य को बढ़ाते हुए इन्होंने मगध पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया.

 इनका भी शकों के साथ लगातार युद्ध हुआ और इनकी शक्ति कमजोर पड़ती गई, जिसके परिणाम स्वरूप दक्षिणपथ में कई नए राजवंशों का उदय हुआ जिनमें वाकाटक राजवंश, कदम्ब वंश, पल्लव वंश और वातापी या बादामी के चालुक्य वंश मुख्य हैं. चालुक्य वंश की तीन मुख्य शाखाएं हैं जो निम्नलिखित हैं –

1 बादामी/वातापी के चालुक्य.

2 वेंगी अथवा पिष्टपुर के चालुक्य.

3 कल्याणी के चालुक्य.

चालुक्य राजवंश का इतिहास जानने के लिए हम इन सभी शाखाओं का विस्तृत अध्ययन करेंगे.

बादामी/वातापी के चालुक्य.

चालुक्य राजवंश का प्रथम और महत्वपूर्ण शासक जयसिंह था (स्त्रोत- कैरा ताम्रपत्र). बादामी अथवा वातापी के चालूक्यों ने छठी शताब्दी के मध्य से लेकर आठवीं शताब्दी के मध्यांतर तक लगभग 200 वर्षों तक दक्षिणापथ में एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की. विंध्याचल पर्वत और कृष्णा नदी के बीच के भाग को जिसमें पश्चिम में महाराष्ट्र और पूर्व में तेलुगु भाषी राज्य शामिल थे, जिन्हें दक्षिणापथ नाम से जाना जाता है आदि चालुक्य साम्राज्य में शामिल थे.

पुलकेशिन द्वितीय के अभिलेख एहोल से वातापी अथवा बादामी के चालुक्यों के बारे में प्रामाणिक जानकारी मिलती है, इस अभिलेख के रचनाकार रविकृत थे.

पुलकेशिन प्रथम- चालुक्य वंश का प्रथम शासक (543-566 ईस्वी)-

चालुक्य राजवंश की बादामी अथवा वातापी शाखा का संस्थापक और चालुक्य वंश का प्रथम शासक पुलकेशिन प्रथम था. अपने शासनकाल के दौरान पुलकेशिन ने कई उपाधियां धारण की थी जिनमें रणविक्रम, स्तायश्रय और श्रीपृथ्वीबल्लभ मुख्य हैं. चालुक्य राजवंश के संस्थापक पुलकेशिन प्रथम ने अपने कार्यकाल में वाजपेय और अश्वमेध यज्ञ करवाया था.

चालुक्य वंश के प्रथम शासक पुलकेशिन की मृत्यु के पश्चात उनका बड़ा बेटा कीर्तिवर्मन बादामी अथवा वातापी का अगला शासक बना. उनके छोटे बेटे का नाम मंगलेश था.

कीर्तिवर्मन प्रथम (1566-1597 ईस्वी)

चालुक्य साम्राज्य के संस्थापक पुलकेशिन प्रथम की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र कीर्तिवर्मन 1566 ईस्वी में राज गद्दी पर आसीन हुआ. इन्होंने भी अपने पिता की तरह पुरु, रणपराक्रम व सत्याश्रय जैसी उपाधियां धारण की. कीर्तिवर्मन प्रथम एक विस्तारवादी शासक थे, जो गद्दी पर बैठते ही आसपास के राज्यों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाया.

इन्होंने कोंकण के मौर्य, बेल्लारी करनूल क्षेत्र के नलवंशी राजाओं और कदम्बों को पराजित करके अपनी अधीनता स्वीकार करवाई, लेकिन पूर्णतया उनके राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाया. महाकुट स्तंभलेख में इनके द्वारा किए गए “बहुसुवर्ण- अग्निष्टोम” यज्ञ का विवरण मिलता है.

कीर्तिवर्मन ने बादामी में गुहा मंदिरों का निर्माण करवाया था. कीर्तिवर्मन प्रथम की मृत्यु के समय इनके तीनों पुत्र अवयस्क थे इसी वजह से इनके मरणोपरांत इन का छोटा भाई मंगलेश राजा बना.

मंगलेश (597-610 ईस्वी)

बड़े भाई कीर्तिवर्मन की मृत्यु के पश्चात मंगलेश राजगद्दी पर बैठा. यह वैष्णय धर्म के अनुयाई थे, इन्होंने “परमभागवत” की उपाधि धारण की थी. इन्होंने 597 ईस्वी से लेकर 610 ईस्वी तक लगभग 13 वर्षों तक शासन किया. इन्होंने कदम्बों का पूर्णतया नाश कर अपने साम्राज्य में मिला दिया जिनमें कलचुरी शासक बुद्धराज की पराजय भी शामिल हैं.

यह अपने भाई से एक कदम आगे निकले और जिन राज्यों को इन्होंने जीता उन्हें पूर्ण रूप से अपने राज्य में शामिल भी किया. साथ ही इनके बड़े भाई कीर्तिवर्मन द्वारा बादामी में जो गुहा मंदिरों का निर्माण शुरू किया गया था, उसे इन्होंने पूरा करवाया.

पुलकेशिन द्वितीय- चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी राजा था (610 या 611-642 ई.)

ऐहोल शिलालेख जो कि इनके राजकवि रविकीर्ति द्वारा रचित है, से इनके बारे में जानकारी प्राप्त होती है.

पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी राजा था जो कीर्तिवर्मन प्रथम के पुत्र थे. एहोल प्रशस्ति के अनुसार इन्होंने इनके चाचा मंगलेश को मौत के घाट उतार कर चालुक्य राज्य की गद्दी संभाली. इन्होंने परमभाट्टारक, दक्षिणापथेश्वर, सत्यश्रय श्री पृथ्वीबल्लभ महाराज और महाराजाधिराज जैसी उपाधियां धारण की.

पुलकेशिन द्वितीय ने अपने राज्य को व्यवस्थित तरीके से चलाने के लिए इसको दो भागों में विभाजित कर दिया क्योंकि उस समय चालुक्य वंश बहुत विशाल रूप ले चुका था.

 एक भाग पर उन्होंने स्वयं शासन किया और दूसरे भाग पर विष्णुवर्धन जो कि इनका छोटा भाई था को सौंपा जिसकी राजधानी वेंगी थी. वेंगी अथवा पिष्टपुर के चालुक्य शाखा यही थी. इन्होंने नर्मदा नदी के मुहाने पर हर्षवर्धन को पराजित (एहोल शिलालेख के अनुसार) किया था.

पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव शासक महेंद्रवर्मन को पराजित कर उसके राज्य की उत्तरी सीमा को अपने राज्य में मिला लिया, लेकिन महेंद्रवर्मन की राजधानी (कांची) को हासिल नहीं कर सका. यहीं से पल्लव वंश और चालूक्यों के बीच संघर्ष की शुरुआत हुई थी. पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी राजा था जो हार मानने वाला नहीं था, उसने युद्ध जारी रखा.

साम्राज्य विस्तार के महत्वकांक्षी पुलकेशिन द्वितीय ने पुनः पल्लव वंश की राजधानी कांची पर आक्रमण किया लेकिन इस बार उसे महेंद्रवर्मन के पुत्र नरसिंहवर्मन ने बुरी तरह से पराजित कर दिया. प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनसांग पुलकेशिन द्वितीय के अंतिम वर्षों में उनके दरबार में आया था. उपरोक्त जानकारी के बाद हम कह सकते हैं कि पुलकेशिन द्वितीय चालुक्य वंश का सबसे प्रतापी राजा था.

विक्रमादित्य प्रथम (655- 680 ईस्वी)

पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात पल्लवों ने बादामी और चालूक्यों के राज्य के दक्षिण भाग पर अधिकार कर रखा था. इस स्थिति को देखते हुए चालुक्य सामंतों ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया, इस समय चालुक्य आपस में लड़ते रहे.

आपसी संघर्ष में पुल के सीन का छोटा बेटा विक्रमादित्य प्रथम विजेता रहा और उसने पल्लवों को खदेड़ते हुए पुनः बादामी पर कब्जा कर लिया.

अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए आतुर विक्रमादित्य प्रथम ने पल्लव शासक महेंद्रवर्मन द्वितीय और परमेश्वरवर्मन प्रथम को युद्ध में पराजित कर उनकी राजधानी काँची पर अधिकार कर लिया. लेकिन यह विजय स्थाई नहीं रही, यह राज्य पुनः पर पल्लवों के अधीन चला गया.

विक्रमादित्य प्रथम के बाद विनयादित्य और विक्रमादित्य द्वितीय उत्तराधिकारी हुए.

विनयादित्य (680- 696 ईस्वी)

पिता विक्रमादित्य प्रथम की मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र विनयादित्य 680 ईस्वी में चालुक्य साम्राज्य का शासक बना. इनका भी निरंतर पल्लवों के साथ संघर्ष जारी रहा. पाण्डेय और चोलों से भी इन्होंने युद्ध किए. उत्तरापथ में विजय अभियान के दौरान यह वीरगति को प्राप्त हुए.

विजयादित्य (696- 733 ईस्वी)

पल्लव शासक परमेश्वर वर्मन द्वितीय को पराजित करते हुए पल्लवों की राजधानी कांची पर अपना अधिकार जमा लिया और पल्लव शासक परमेश्वर वर्मा द्वितीय से कर वसूली करने लगे यहीं पर इन्होंने पत्तदकल में एक शिव मंदिर का निर्माण करवाया था.

विक्रमादित्य द्वितीय (733-746 ईस्वी)

विक्रमादित्य द्वितीय भी चालुक्य वंश में एक वीर शासक के रूप में जाने जाते हैं, जिन्होंने अपने सामंत गंग वंश के श्रीपुरुष की सहायता से पल्लव शासक नंदीवर्मन को पराजित कर दिया. इस जीत के उपरांत इन्होंने कांचीकोंड की उपाधी धारण की.

इतिहासकार बताते हैं कि विक्रमादित्य द्वितीय के शासन अवधि के दौरान लाट पर राष्ट्रकुटों ने अधिकार कर चालुक्य वंश को समाप्त कर दिया.

कीर्तिवर्मन द्वितीय- चालुक्य वंश का अंतिम शासक (746- 757 ईस्वी)

यह बादामी के चालुक्यों का अंतिम शासक था, पल्लव शासकों के साथ हुए निरंतर संघर्षों की वजह से चालूक्यों कि शक्ति क्षीण हो गई थी. इसी कमजोरी के चलते उत्तर भारत के राज्यपालों पर कीर्तिवर्मन ध्यान नहीं दे सके.

कीर्तिवर्मन द्वितीय एक अयोग्य शासक था, जो विक्रमादित्य द्वितीय की मृत्यु के पश्चात चालुक्य साम्राज्य का शासक बना. एक युद्ध में राष्ट्रकूट शासक दंतीदुर्ग ने चालुक्य वंश के अंतिम कीर्तिवर्मन द्वितीय को पराजित कर राष्ट्रकूट वंश की स्थापना की.

चालूक्यों का सामाजिक जीवन और संस्कृति

बादामी अथवा वातापी चालूक्यों का साम्राज्य पश्चिमी-दक्षिणापथ के इतिहास में बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इन्होंने लगभग 200 वर्षों तक शासन किया.

इस वंश के शासकों ने कला, साहित्य और धर्म आदि में विशेष योगदान दिया. यहां के लोगों का स्वभाव सरल भी था और परिस्थितियों के अनुसार उग्र भी. सरल शब्दों में कहा जाए तो सौम्य और उग्र दोनों का समन्वय था.

युद्ध के समय यह राजा बहुत ही उग्र और क्रूरता पूर्वक व्यवहार करते थे जबकि सामान्य परिस्थितियों में यह उग्रता देखने को नहीं मिलती थी. ज्यादातर लोग खेती करते थे और कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था थी. धार्मिक दृष्टि से भी चालुक्य सद्भाव और समन्वय पर चलने वाले थे.

चालुक्य वंश का शासन प्रबंध

👉 भारतीय इतिहास उठाकर देखा जाए तो हर साम्राज्य और राजवंश की अपनी एक शासन प्रबंध व्यवस्था होती थी. चालुक्य राजवंश की शासन व्यवस्था भी समकालीन राजतंत्र की तरह निरंकुश राजतंत्र के अनुसार अपने साम्राज्य की प्रबंध व्यवस्था करते थे.

👉 राजाओं के पास कई अधिकार होने के बाद भी उनका उपयोग जनहित में किया जाता था.

👉 चालुक्य वंश के शासकों के संबंध में किसी अधीनस्थ अधिकारी या मंत्री के होने या नहीं होने का प्रमाण नहीं मिलता है लेकिन राजा मंत्रोत्साह शक्ति नीति का प्रयोग करता था.

👉 चालुक्य वंश के शासक राज्य में भ्रमण करते और शासन व्यवस्था का जायजा लिया करते थे.

👉 युद्ध के समय या किसी अभियान के दौरान जब राजा राज्य से दूर होते, तो भी वहां से वह राज्य की व्यवस्था देखा करते.

👉 मुख्य राजा के युद्ध अभियान में जाने के बाद उनके उत्तराधिकारी या भाई को केंद्रीय शासन व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंपी जाती थी.

👉 चालुक्य वंश के अधीन आने वाले दूरदराज के क्षेत्रों के लिए उपराजा सामंत और नाम मात्र के संरक्षक भी नियुक्त किए जाते थे.

👉 चालुक्य राजवंश के सैनिक प्रशासनिक व्यवस्था में सामंतों का विशेष योगदान रहता था.

👉 राजा के सभी आदेश मौखिक होते थे जिन्हें राष्ट्रापितम नाम से जाना जाता था.

चालुक्य साम्राज्य कालीन गांव

चालुक्य राजवंश के शासनाधीन ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई होती थी जिसका मुखिया राजा द्वारा नियुक्त किया जाता और उसे ‘गामुण्ड’ नाम से जाना जाता था. ‘गामुण्ड’ के सहयोगी कर्ण कहलाते थे.

चालुक्य राजवंश में गांव में रहने वाले बड़े बुजुर्गों का भी विशेष आदर और सम्मान किया जाता था, वह बिना किसी वेतन के गांव के प्रशासनिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते थे. भूमि दान और भूमि हस्तांतरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर उनकी राय ली जाती थी.

चालुक्य राजवंश के अधीन आने वाले गांवों में निधि, उपनिधि, क्लिस, उपक्लिस उपरिकर, परिकर और चाट, भाट जैसे विशेष कर वसूल किए जाते थे.

चालुक्य राजवंश की व्यापारिक स्थिति

गदवाल और करनूल दान पत्रों में राजमान का उल्लेख मिलता है. कृषि आधारित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद भी चालुक्य वंश के समय व्यापार की स्थिति उन्नत थी.

व्यापार पर विभिन्न प्रकार के कर लगाए गए थे जिनमें मारुज्च और आदित्युज्च मुख्य हैं. जब राजा किसी शत्रु को पराजित कर देता आपको उसके ऊपर भी टैक्स लगाया जाता था.

चालुक्य राजवंश के समय धार्मिक स्थिति

चालुक्य राजवंश के समय वैदिक धर्म मुख्य रूप से चलन में था. वैदिक और पौराणिक धर्म के अलावा भी बौद्ध धर्म और जैन धर्म के मानने वाले लोग भी रहते थे.

चालुक्य राजवंश के अधिकतर शासक शैव और विष्णु धर्म के उपासक थे. इन राजाओं ने बादामी, पट्टदिकल, अयहोली आदि स्थानों पर कई मंदिरों का निर्माण करवाया था. जैन धर्म के प्रति भी इन राजाओं की विशेष श्रद्धा थी.

चालुक्य राजवंश की कई रानियों की धार्मिक आस्था जैन धर्म के प्रति विशेष थी, जिनके चलते कई जैन मंदिरों का निर्माण भी इस शासनकाल में हुआ था जैसे कुटकुमादेवी और कलियम्मा द्धारा निर्मित जैन मंदिर.

यज्ञ और हवन भी इस साम्राज्य के शासकों द्वारा समय-समय पर करवाए जाते थे. जैसा कि इस लेख में आपने ऊपर पढ़ा की पुलकेशिन प्रथम, पुलकेशिन द्वितीय, कीर्तिवर्मन प्रथम और मंगलेश आदि राजाओं ने अश्वमेध यज्ञ करवाए थे.

चालुक्य साम्राज्य के कई राजाओं ने माहेश्वर, ब्राम्हण और परम वैष्णव आदि उपाधियां धारण की थी.

चालुक्य वंश का शिक्षा एवं साहित्य में योगदान

वातापी के लोग शिक्षा में विशेष रूचि रखते थे जिसका उल्लेख हमें प्रसिद्ध चीनी यात्री हेनसांग के लेख से मिलता है. चालुक्य वंश के युवराजों की शिक्षा दीक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता था.

इसी कड़ी में चालुक्य शासक पुलकेशीन प्रथम के अध्ययनकाल में मनु के धर्मशास्त्र, रामायण और पुराण की शिक्षा दी गई थी. मंगलेश को विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान दिया गया. वातापी चार विद्या और कला का केंद्र था जहां हजारों द्विज 14 शास्त्रों का अध्ययन करते थे.

इन शास्त्रों में वेदांग, पुराण, मीमांसा, न्याय और धर्म शास्त्र जैसे विषय शामिल थे. कई अभिलेखों में श्री महाचतुविद्या का उल्लेख मिलता है जिसमें त्रयी, वार्ता, दंडनीति और अनविक्षिकी शामिल थी.

इस समय सभी अभिलेख कन्नड़ या संस्कृत भाषा में लिखे जाते थे. जैनेन्द्र व्याकरण नामक ग्रंथ इसी काल में लिखा गया था.

चालुक्य राजवंश के समय सोमदेव सूरी जिन्होंने यशस्तिलक और नीति वाक्या-मृतम् लिखा और तुम्बुलाचार्य (तत्वार्थ महाशास्त्र की चूड़ामणि टीका के लेखक) , कन्नड़ प्राकृत और संस्कृत के महाकवि श्यामकृण्डाचार्य तथा महाकवि पम्प जिन्होंने आदिपुराण और विक्रमार्जुन की रचना की थी जैसे महान कवि और लेखक मौजुद थे.

चोल वंश या साम्राज्य का इतिहास।

स्थापत्य कला और संस्कृति में चालूक्यों का योगदान

स्थापत्य कला और संस्कृति में चालुक्य राजवंश का योगदान अभूतपूर्व माना जाता है. इनकी शासन अवधि में निर्मित मंदिर और विहार वास्तु कला के क्षेत्र में विशेष स्थान रखते हैं.

पत्थरों को आपस में जोड़ कर मंदिर निर्माण की कला का विकास चालुक्य राजवंश के दौरान हुआ था. द्रविड़ और नागर दोनों ही शैलियों पर कई मंदिरों का निर्माण हुआ, साथ ही बेसर शैली के आधार पर भी मंदिर बनवाए गए.

समय के साथ साथ जब चालुक्य शासक पल्लवों के संपर्क में आए, तब पल्लव मूर्ति शैली का प्रभाव बादामी के मूर्ति की कला क्षेत्र में देखने को मिला. विरुपाक्ष मंदिर इसका जीता जागता उदाहरण है.

सातवीं सदी के दौरान लगभग 70 मंदिरों का निर्माण हुआ था जिनमें दर्गा मंदिर, लांडखां मंदिर, हच्ची मल्लीगुड़ी मन्दिर, मेगुती मन्दिर जैसे प्रसिद्ध मंदिर भी शामिल है.

वातापी अथवा बादामी चालुक्य राजवंश की वास्तुकला का मुख्य केंद्र रहा है, यहां पर स्थित चार मंदिरों में तीन ब्राह्मण धर्म से संबंधित हैं और एक जैन मंदिर हैं. वैष्णव मंदिर सबसे प्राचीन माना जाता है जिसका निर्माण 570 ईसवी में हुआ था.

पहली बार पापनाथ मंदिर में द्रविड़ और नागर शैली का प्रयोग किया गया था. इस मंदिर का शिखर नागर शैली में बना हुआ है बाकी का पूरा मंदिर द्रविड़ शैली से बना हुआ है. तुंगभद्रा की उपत्यका में आलमपुर ब्रह्मा मंदिर भी चालुक्यकालीन वास्तु का उत्कृष्ट नमूना है.

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इस लेख में आपने चालुक्य राजवंश का इतिहास (Chalukya Rajvansh History In Hindi) और चालुक्य साम्राज्य का इतिहास (Chalukya Samrajya History In Hindi) को पढ़ा, उम्मीद करते हैं यह लेख आपको अच्छा लगा होगा, धन्यवाद.

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