पेशवा माधवराव प्रथम (who was madhavrao peshwa)-
- पूरा नाम Full Name of Madhavrao– थोरले माधवराव बल्लाल पेशवे।
- जन्म तिथि Madhavrao Peshwa date of birth– 16 फरवरी 1745, सवनुर(कर्नाटक).
- मृत्यु Madhavrao Peshwa Death– 18 नवंबर 1772, थेऊर, महाराष्ट्र।
- पिता का नाम Madhavrao Peshwa father’s name– बालाजी बाजीराव पेशवा।
- माता का नाम Madhavrao Peshwa mother’s name– गोपिकाबाई।
- पत्नी का नाम Madhavrao Peshwa wife – रमाबाई।
- विवाह marriage– 9 दिसंबर 1753.
- पुत्र madhavrao peshwa son name-NA
- धर्म religion– हिंदू, सनातन।
- समाधी स्थल Tombstone -गणेश चिंतामणि मंदिर के पास थुर, महाराष्ट्र।
- संबंधी madhavrao peshwa family– विश्वासराव (बड़ा भाई), नारायण राव (छोटा भाई), सदाशिवराव भाऊ (चाचा,काका), शमशेर बहादुर प्रथम उर्फ कृष्ण राव (चाचा), बाजीराव प्रथम ( दादाजी), काशीबाई (दादीजी).
madhavrao Peshwa History in Hindi प्रारंभिक जीवन-
Madhavrao Peshwa का जन्म सवनूर कर्नाटक में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा और दीक्षा यहीं से हुई।
पेशवा बालाजी बाजीराव (नाना साहेब) और गोपीका बाई के पहले पुत्र के रूप में माधवराव पेशवा का जन्म हुआ।
अगर इनके विवाह की बात की जाए तो 1753 में रमाबाई के साथ इनका विवाह हुआ था। इनके छोटे भाई का नाम नारायण राव था।
पेशवा परिवार से संबंध रखने वाले माधवराव पेशवा बचपन से ही ऐसे वातावरण में बढ़े हुए जहां पर उन्हें अस्त्र और शस्त्र दोनों तरह की शिक्षाएं मिली।
अपने पिता नाना साहेब के सानिध्य में इन्होंने युद्ध कला में भी महारत हासिल की। मात्र 16 वर्ष की उम्र में इन्होंने कमान संभाली थी।
1745 में जन्म लेने वाले माधवराव पेशवा का मात्र 27 वर्ष की आयु में 1772 में निधन हो गया था।
माधवराव पेशवा कैसे बने-
Madhavrao peshwa के पेशवा बनने की कहानी- नाना साहेब उर्फ बालाजी बाजीराव पेशवा ने उनकी मृत्यु से पहले ही यह घोषणा कर दी कि उनके पश्चात् मराठा साम्राज्य का अगला पेशवा माधवराव होंगे।
माधवराव इस समय युवावस्था में थे, नाना साहेब की मृत्यु हो गई। नाना साहेब ने जीते जी यह भी कहा था कि जब तक माधवराव वयस्क नहीं हो जाते उनकी जगह समस्त काम-काज रघुनाथ राव जी (माधवराव पेशवा के चाचा) संभालेंगे।
20 जुलाई 1761 के दिन सातारा में छत्रपति ने उनको विधिवत् रूप से “पेशवा की उपाधि” प्रदान की। इस समय इनकी आयु मात्र 16 वर्ष थी।
Madhavrao peshwa vs raghunathrao की लड़ाई-
पेशवा का कार्यकारी दायित्व मिलने के पश्चात् रघुनाथ राव की मंशा पेशवा पद हासिल करने की हुई। रघुनाथ राव को लगता था कि माधवराव पेशवा अभी वयस्क नहीं हैं और सभी काम संभाल नहीं पाएगा।
सातारा से वापस आने के बाद रघुनाथ राव ने संपूर्ण काम अपने अधीन ले लिया।
नए दीवान की ज़िम्मेदारी “सखाराम बापू” को मिली। पेशवा माधवराव की माता गोपिकाबाई को कामकाज का बहुत अनुभव था। गोपिकबाई को लगा कि अगर रघुनाथ राव सारा काम करेगा तो भविष्य में पेशवा माधवराव के लिए रोड़ा बन सकता हैं।
गोपिकाबाई ने इसका विरोध शुरू कर दिया। पेशवा बाजीराव प्रथम के समय से ही गोपीकाबाई पेशवा के काम देख रही थी जिसके चलते उन्हें बहुत अनुभव था।
पुणे में पेशवा परिवार में आपसी कलह कि शुरूआत यहीं से शुरू हो गई। इस समय मराठा साम्राज्य के पदाधिकारी दो भागों में बंट गए। एक पक्ष ने गोपिकाबाई का साथ देना उचित समझा जबकि दूसरे पक्ष ने रघुनाथ राव का साथ दिया।
मराठा सरदारों में से त्रिंबकराव पेठे, बाबूराव फड़नणवीस,गोपाल राव पटवर्धन, भवान राव, तात्या घोरपड़े और आनंद राव रस्ते ने माता गोपीकाबाई का साथ दिया।
जबकि रघुनाथ राव के समर्थकों की बात करें तो सखाराम बापू का नाम सबसे ऊपर आता हैं इनके अलावा कृष्ण राव पारसनीस, आबा पुरंदरे, नारो शंकर, राजबहादुर, विट्ठल शिवदेव विनचुरकर, चिंतो विट्ठल रायरिकर, महिपत राव चिटणिस आदि नाम आते हैं।
प्रजा का समर्थन भी माधवराव के साथ था इतना ही नहीं ज्यादातर मुख्य पदाधिकारी और सरदार माधवराव के प्रति सहानुभूति रखते थे। रघुनाथ राव का विरोध लगातार बढ़ता जा रहा था।
इस बर्थडे गतिरोध को कम करने के लिए रघुनाथ राव ने अपने पद से इस्तीफा देने की धमकी दी ताकि माधवराव और गोपीकाबाई के साथ-साथ उनके समर्थकों पर भी दबाव बढ़ाया जा सके।
रघुनाथ राव और उनका साथ दे रहे सखाराम बापू का मानना था कि इनके बिना राज्य कार्य ठीक से नहीं चल पाएगा।
रघुनाथ राव की धमकी के आगे विवश होने और झुकने की बजाय गोपीकाबाई ने उनके प्रस्ताव को मानना उचित समझा। गोपीकाबाई ने सुझाव दिया कि अगर रघुनाथ राव और सखाराम बापू पद त्याग देते हैं तो उनकी जगह बाबूराव फड़नणवीस और त्रिंबकराव पेठे को नियुक्त कर दिया जाएगा।इस बात से रघुनाथराव बहुत ही क्रोधित हुए और उन्होंने हैदराबाद के “निजाम उल मुल्क असफजाह” को मराठों के खिलाफ भड़काना शुरू कर दिया।
रघुनाथ राव (राघोबा) अपने पक्ष के लोगों को एकत्रित कर अलग ही सेना बनाने में जुट गया। रघुनाथ राव को किसी भी स्थिति में पेशवा पद चाहिए था। माधवराव पेशवा की आयु इस समय बहुत कम थी लेकिन अगर उनकी खासियत की बात की जाए तो वह दूरदर्शी और बहुत समझदार व्यक्ति थे।
माधवराव पेशवा ने रघुनाथ राव को समझाने का प्रयास भी किया लेकिन सब व्यर्थ। इस संदर्भ में “गोविंद सखाराम सरदेसाई” लिखते हैं कि 1 महीने तक अडिग और अस्थिर रहने के बाद रघुनाथ राव अपने समर्थकों के साथ गोपीकाबाई और माधवराव पेशवा के सामने एक शर्त रखते हैं।
शर्त यह थी कि पेशवा माधवराव द्वारा उन्हें पांच महत्वपूर्ण फोर्ट दिए जाए साथ ही कम से कम 10 लाख रुपए सालाना आय वाली जागीर प्रदान की जाए।लेकिन रघुनाथ राव की इन मांगों को माधवराव पेशवा ने सिरे से खारिज कर दिया।
7 नवंबर 1762 का दिन था घोड़ नदी के किनारे स्थित मैदान जो कि पुणे से लगभग 30 मील की दूरी पर था, माधवराव पेशवा और रघुनाथ राव की सेनाएं आमने-सामने थी इस युद्ध में रघुनाथ राव का साथ हैदराबाद के निजाम दे रहे थे। इस युद्ध में किसी की भी हार या जीत नहीं हुई दोनों सेनाएं पीछे हट गई।
माधवराव पेशवा अपनी सेना के साथ बीमा नदी के किनारे स्थित आले गांव चले गए लेकिन यहां पर भी रघुनाथराव निजाम की सेना के साथ मिलकर उनका पीछा करता रहा।
5 दिन बाद 12 नवंबर 1762 के दिन रघुनाथ राव ने माधवराव पेशवा की सेना पर धावा बोल दिया। इस युद्ध के लिए रघुनाथराव योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़े और आक्रमण किया जबकि माधवराव पेशवा को भनक तक नहीं थी।
अचानक हुए वार को माधवराव पेशवा झेल नहीं पाए और इस युद्ध में उनकी बुरी तरह हार हुई।
माधवराव नहीं चाहते थे कि मराठों में इस तरह का ग्रह युद्ध लंबे समय तक चले और इसका फायदा कोई तीसरा व्यक्ति उठा ले। इसी के चलते वह रघुनाथ राव के शिविर में पहुंचे और आत्मसमर्पण कर दिया।
माधवराव पेशवा के लिए व्यक्तिगत हित से कई गुना बढ़ कर अपने राज्य का हित था। माधवराव ने सभा में यह भी बोला कि उन्हें पद और प्रतिष्ठा की चाह नहीं है लेकिन रघुनाथराव को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ उन्होंने पेशवा माधवराव के साथ-साथ माता गोपीकाबाई को भी नजर बंद कर दिया और लगभग 2000 सैनिकों की एक विशेष टुकड़ी को उन पर नजर रखने के लिए तैनात किया।
माधवराव पेशवा रघुनाथ राव के तहखाने में बंद थे जबकि गोपीकाबाई को शनिवारवाडा में ही नजरबंद किया गया।
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Madhavrao Peshwa को पुनः सत्ता कैसे हासिल हुई-
हैदराबाद के निजाम ने उनके भाई सलावतजंग को दीवान के पद से हटा दिया। निजाम की दूरदर्शिता और प्लानिंग बड़ी थी। पानीपत में मराठों की बुरी तरह हार हुई थी और वर्तमान समय में चल रहे गृह युद्ध की वजह से निजाम फायदा उठाना चाहता था।
इन सब को ध्यान में रखते हुए चतुर कूटनीतिज्ञ और राजनीति का विशेष ज्ञान रखने वाले विठ्ठल सुंदर को अपना दीवान बनाया।
हैदराबाद के निजाम ने रघुनाथ राव जो कि उस समय पेशवा के समस्त कार्य देख रहा था को पत्र लिखा कि भीमा नदी के पूर्व में स्थित पूर्व क्षेत्र उनको दिया जाए साथ ही उनके लिए हुए फोर्ट उन्हें वापस लौटा दिए जाए।
साथ ही मराठा साम्राज्य का दीवान भी हैदराबाद के निजाम के अनुसार बनाया जाए। यह खबर मराठा साम्राज्य में आग की तरह फैल गई।
राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए सभी नए और पुराने सरदार एक हो गए इतना ही नहीं रघुनाथ राव और माधवराव की लड़ाई से नाराज होकर जो सरदार हैदराबाद चले गए थे उन्हें भी जैसे तैसे मना कर पुनः बुला लिया गया।
घोर अपमान का सामना कर रहे माधवराव ने भी ऐसे समय में अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए सभी मराठा सरदारों को एकजुट रहने की सलाह दी।
मल्हार राव होलकर और दमाजी गायकवाड के नेतृत्व में मराठा सेना निजाम की सेना से लोहा लेने के लिए कमर कस चुकी थी।
ना तो मराठा सैनिकों को इस बात की भनक थी कि निजाम उनके ऊपर आक्रमण करने जा रहा है और ना ही निजाम को इस बात की जानकारी थी कि मराठी सेना उनके ऊपर आक्रमण करने जा रही है।
निजाम की सेना पुणे की तरफ निकल पड़ी जबकि मराठी सेना औरंगाबाद की तरफ निकल पड़ी दोनों ही सेनाओं का कहीं भी आमना-सामना नहीं हुआ निजाम की सेना ने पुणे में खूब लूटपाट की जनता को परेशान किया इतना ही नहीं गोपीकाबाई को भी नारायण राव के साथ चुप कर वहां से भागना पड़ा।
गोपीकाबाई ने सिंहगढ़ के किले में शरण ली जबकि नाना फडणवीस लोहागढ़ पहुंचे।
अपने लोगों पर अत्याचार होते हुए देखकर निजाम की सेना में शामिल सभी पूर्व मराठी सरदार धीरे धीरे मराठों की ओर शामिल हो गए।
सितंबर 1763 स्थान राक्षसभुवन, निजाम और मराठा सेना आमने-सामने थी। अकल्पनीय और अविश्वसनीय भयंकर युद्ध हुआ इस युद्ध के परिणाम स्ववरूप निजाम की सेना पूरी तरह मिट्टी में मिल गई। हैदराबाद के दीवान सुंदर विट्ठल भी इस युद्ध में मारे गए।
“औरंगाबाद की संधि”-
25 सितंबर 1763 के दिन निजाम और रघुनाथ राव (राघोबा) के बीच एक संधि हुई जिसे औरंगाबाद की संधि कहा जाता है। संधि के तहत रघुनाथ राव ने स्वार्थ वर्ष जितने भी प्रदेश निजाम को दिए थे उन्हें वापस लौटा दिया जाए।
किस युद्ध के बाद माधवराव पेशवा के प्रति समस्त मराठा सरदारों का विश्वास बढ़ गया और उनकी प्रसिद्धि घर-घर तक फैल गई। पानीपत के मैदान में बुरी तरह से हार गए मराठों ने जो अपनी प्रतिष्ठा गवाई थी, कुछ हद तक इस युद्ध के बाद उन्हें पुनः प्रतिष्ठा की प्राप्ति हुई साथ ही लंबे समय से चले आ रहे गृह युद्ध भी समाप्त हुआ।
पुराने सरदारों को पुनः है उनके पद पर आसीन किया गया साथ ही माधवराव पेशवा के नेतृत्व में मराठा साम्राज्य की बागडोर आ गई।बालाजी जनार्दन बानू (नाना फडणवीस) और महादजी सिंधिया और माधवराव पेशवा त्रिमूर्ति के रूप में मराठा साम्राज्य की सेवा के लिए कटिबद्ध हुए।
MadhavRao Peshwa के नेतृत्व में मराठा साम्राज्य का पुनः विस्तार-
पानीपत के तीसरे युद्ध में मराठी सेना की कमर टूट चुकी थी। इस युद्ध के बाद हैदर अली को लगा कि उसे अपने साम्राज्य को और बढ़ाना चाहिए साथ ही मराठों की हार से उसका हौसला बढ़ गया।
1770 में हैदर अली ने मराठी सेना पर आक्रमण कर दिया। मराठी सेना की कमान माधवराव पेशवा के हाथ में थी। करीब 6 महीने तक माधवराव स्वयं सेना की अगुवाई करते रहे लेकिन बीमारी के चलते उन्होंने सेना की कमान त्रिंबकराव पेठे के हाथों में सौंप दी।
7 मार्च 1771 का सूर्य मराठी सेना की जीत लेकर उदय हुआ। मोती तालाब के युद्ध में हैदर अली को मराठी सेना ने पराजित कर दिया।
पेशवा माधवराव प्रथम हैदर अली की गद्दी छीन कर हिंदू राजा को राज्य की कमान सौंपना चाहते थे लेकिन उनकी राह में इस बार फिर उनके चाचा रघुनाथ राव उर्फ राघोबा ने रोड़ा अटका दिया।
30 मार्च 1771 के दिन अमीर फैजुल्ला के साथ (हैदर अली का प्रतिनिधि) संधि कर ली।
माधवराव पेशवा बनाम रघुनाथ राव पेशवा का युद्ध-
सितंबर 1763 के दिन राक्षसभुवन के युद्ध में विजय के साथ ही माधवराव पेशवा ने पेशवा के सभी अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे।
इस वजह से रघुनाथराव अर्थात राघोबा परेशान थे क्योंकि उनकी महत्वकांक्षी थी मराठा साम्राज्य का पेशवा बनने की। नागपुर के राजा के साथ मिलकर उन्होंने माधवराव पेशवा के खिलाफ विद्रोह करना शुरू कर दिया।
माधवराव पेशवा के पास अब कोई रास्ता नहीं बचा और माधवराव को भी लगने लगा कि बिना युद्ध किए इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। बहुत जल्द बहुत दिन भी आ गया जब माधवराव पेशवा और रघुनाथ राव आमने-सामने हो गए।
दोनों के बीच हुए इस युद्ध में राघोबा ने हार मान ली।Madhavrao पेशवा को राघोबा की नियत पर शक होने की वजह से शनिवारवाडा में ही उन्हें कैद कर लिया ताकि भविष्य में पुनः वह कोई समस्या खड़ी ना कर सके।
Madhavrao Peshwa की मृत्यु कैसे हुई-
1771 के प्रारंभिक समय में ही माधव राव पेशवा क्षय रोग से ग्रसित हो गए थे। इनके जीवन के अंतिम 2 से ढाई वर्ष का समय बहुत खराब रहा।
क्षय रोग की वजह से यह लगातार बीमार रहे। इस रोग की वजह से उनकी हालत इतनी खराब थी कि वह बहुत तड़पने लगते थे उनकी तड़प इतनी तेज थी कि इस दौरान वह अपने आसपास मौजूद लोगों से उनकी हत्या करने के लिए बोलते थे।
उन्हें असहनीय पीड़ा होती थी। जब उन्हें लग गया कि अब उनके पास ज्यादा समय नहीं है, तब उन्होंने अपने चाचा रघुनाथ राव अर्थात राघोबा को कैद से मुक्त करवा कर अपने पास बुला लिया और उनसे वचन दिया कि वह पेशवा के छोटे भाई नारायण राव की रक्षा करेंगे।
माधवराव पेशवा को रघुनाथ राव ने वचन दिया कि वह किसी भी कीमत पर नारायण राव की रक्षा करेंगे।अपनी अंतिम इच्छा अनुसार माधवराव पेशवा को थेऊर के गणेश मंदिर ले जाया गया।
18 नवंबर 1772 का दिन मराठा साम्राज्य के लिए बहुत क्षति करने वाला था, इस दिन माधवराव पेशवा ने दम तोड़ दिया।
माधव राव की मृत्यु के पश्चात उनकी पत्नी रमाबाई एकदम भी रद्द हो गई और उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देने का मन बना लिया। इसी के चलते वह सती प्रथा के अनुसार उन्होंने अपने शरीर को आग के हवाले कर दिया।
MadhavRao Peshwa द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्य-
1. सन 1761 ईसवी में अब्दुल शाह अब्दाली और मराठी सेना के बीच में पानीपत के मैदान में युद्ध लड़ा गया, जिसे पानीपत का तीसरा युद्ध के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में मराठी सेना की बुरी तरह हार हुई। इसके बाद माधवराव को पेशवा बनाया गया उन्होंने मराठा साम्राज्य के पुनरुत्थान का जिम्मा उठाया।
2. सन 1762 ईस्वी में माधवराव पेशवा और उनके चाचा रघुनाथराव के बीच तकरार और विद्रोह लगातार बढ़ता जा रहा था। रघुनाथ राव ने पेशवा पद प्राप्त करने के लिए माधवराव पर हमला कर दिया और उन्हें पराजित कर कुछ समय के लिए इस पद को हासिल किया, साथ ही उन्हें कैद कर लिया गया। 7 मार्च 1763 के दिन माधवराव पेशवा ने रघुनाथराव को पराजितपुनः करके सर्वे सर्वा बने।
3. सुल्तान हैदर अली को हराकर 1764 ईस्वी में माधवराव पेशवा ने मैसूर पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
4. अंग्रेजों ने भारत में अपनी सेना स्थापित करने के लिए 3 दिसंबर 1767 ईस्वी में एक अधिकारी को भारत भेजा। पुणे में माधवराव पेशवा ने अंग्रेज अधिकारी “मास्टिन” को इसकी अनुमति नहीं दी।
5. रघुनाथ राव अर्थार्थ राघोबा ने 7 सितंबर 1769 के दिन पुणे के पार्वती मंदिर से वापस लौटते वक्त माधवराव पेशवा की हत्या करने का प्रयास किया लेकिन असफल हुए।
6. 18 नवंबर 1772 के दिन तपेदिक अर्थात क्षय रोग की वजह से चिंतामणि गणेश मंदिर में उन्होंने देह त्याग दी।
7. इस समय सती प्रथा का प्रचलन था उनकी साध्वी पत्नी रमाबाई ने भी माधवराव पेशवा की मृत्यु के बाद स्वयं को आग के हवाले कर दिया।
8. माधवराव पेशवा Madhavrao Peshwa को मराठा साम्राज्य के इतिहास के सबसे सक्षम और धैर्यवान के साथ-साथ शूरवीर सम्राटों में से एक माना जाता है।
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