मैत्रक वंश का इतिहास और उत्पत्ति.

मैत्रक वंश का इतिहास Maitrak Vansh History In Hindi-

मैत्रक वंश का इतिहास 5वीं शताब्दी से लेकर 8वीं शताब्दी तक देखने को मिलता है. मैत्रक वंश के शासकों ने गुजरात और सौराष्ट्र (काठियावाड़) में शासन किया था. इस वंश के शासकों ने बहुत धार्मिक कार्य किए. इनका शासनकाल बौद्ध धर्म के लिए विशेष माना जाता हैं. मैत्रक वंश की उत्पत्ति 5 वीं शताब्दी में हुई.

विभिन्न धार्मिक स्थानों को इन्होंने विशेष संरक्षण प्रदान किया था. भट्टारक जो कि गुप्त साम्राज्य के अधिनस्थ सौराष्ट्र के राज्यपाल थे उन्होंने इस वंश की स्थापना की थी. इन्हें वल्लभी के मैत्रक नाम से भी जाना जाता हैं. मैत्रक वंश का इतिहास बताता हैं कि इस वंश के राजा हिंदू धर्म को मानने वाले थे.

इस लेख में हम मैत्रक वंश का इतिहास और इसकी उत्पत्ति के सम्बंध में विस्तृत रूप से जानेंगे.

मैत्रक वंश का इतिहास (Maitrak Vansh History In Hindi)

मैत्रक वंश का इतिहास जानने से पहले संक्षिप्त में मुख्य जानकारी निम्न हैं-

मैत्रक वंश की राजधानी- वल्लभी.

मैत्रक वंश का संस्थापक- भट्टारक.

धर्म- हिंदू, सनातन.

सरकार- राजतंत्र.

शासनकाल- 5वीं शताब्दी से लेकर 8वीं शताब्दी तक.

शासन का क्षेत्र- गुजरात और सौराष्ट्र.

मैत्रक वंश का अंतिम शासक – शिलादित्य चतुर्थ.

मैत्रक वंश का इतिहास बहुत प्राचीन है. मैत्रक शब्द का संस्कृत में अर्थ सूर्य होता है. इस सम्बंध में इतिहासकार बताते हैं कि मैत्रक मिहिर से बना शब्द है. किसी समय में मैत्रक वंशीयों के पूर्वज कुषाण गुर्जर थे. लेकिन कालांतर में कुषाण गुर्जर साम्राज्य का पतन हो गया फलस्वरूप इनको गुप्तों के अधीन काम करना पड़ा.

मैत्रक वंश की उत्पत्ति कहाँ से हुई यह कहना थोड़ा कठिन हैं लेकिन इस वंश की स्थापना का श्रेय मैत्रक सरदार भट्टारक को जाता है, जो गुप्त वंश के शासनकाल में सामंत हुआ करते थे. चौथी शताब्दी के अंत में जाते-जाते गुप्त साम्राज्य का पतन होने लगा. इसी का फायदा उठाकर भट्टारक ने 475 ईस्वी में मैत्रक वंश की स्थापना की और स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया.

इतिहासकार लिखते हैं कि आरंभिक मैत्रक शासकों जिसमें भट्टारक और उसका पुत्र धरसेन प्रथम शामिल है, गुप्त साम्राज्य के अधीन ही थे अर्थात उन्हें पूर्ण रूप से स्वतंत्रता प्राप्त नहीं हुई थी. वह सेनापति के पद पर रहते हुए स्वतंत्र शासक के रूप में काम करते थे.

भट्टारक और उनके वंशज बड़े ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे इसलिए धार्मिक संस्थाओं का बहुत ख्याल रखा. मैत्रक वंश के शासनकाल को बौद्ध धर्म का केंद्र माना जाता रहा हैं. कई ऐतिहासिक स्त्रोतों से यह जानकारी मिलती है कि पांचवी शताब्दी के दौरान वल्लभी में श्वेतांबर जैन नियमावली सूत्रबद्ध की गई थी.

धरसेन के उत्तराधिकारी महाराज या महासामंत महाराज कहलाते थे. मैत्रक वंश के शक्तिशाली राजा शिलादित्य प्रथम के शासनकाल में इस वंश का प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया था. राजस्थान और मालवा (MP) इस वंश के शासन क्षेत्र में आते थे.

एक समय ऐसा आया जब मैत्रकों को कन्नौज के राजा हर्ष ने पराजित कर दिया. वहीं दूसरी तरफ दक्कन के चालुक्य शासकों ने भी इन्हें मात दी, जिसके चलते मैत्रक वंश की शक्ति क्षीण हो गई. लेकिन जैसे ही कन्नौज के शासक राजा हर्ष की मृत्यु हुई मैत्रक शासक पुनः पावर में आ गए.

सातवीं शताब्दी के प्रारंभ में सिंध क्षेत्र में अरबी आक्रांताओं ने अपने पैर जमाना शुरू कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप मैत्रक शासक शिलादित्य चतुर्थ को अरबों ने मौत के घाट उतार दिया. 712 ईस्वी के आसपास मैत्रक वंश समाप्त हो गया. इस वंश की समाप्ति के बाद 780 ईस्वी में उनकी राजधानी को भी तहस-नहस कर दिया गया. मैत्रक वंश की उत्पत्ति और मैत्रक वंश का इतिहास 8वीं शताब्दी में बहुत महत्वपूर्ण था.

मैत्रक वंश के मुख्य शासक

1. भट्टारक

भट्टारक मैत्रक वंश के संस्थापक थे यहीं से मैत्रक वंश का इतिहास शुरू होता हैं. भट्टारक राजा बनने से पहले गुप्त वंश के सामंत के रूप में कार्य करते थे लेकिन समय के साथ जब गुप्त वंश का पतन हुआ तो कई छोटे-छोटे राज्य स्वतंत्र हो गए इसी समय भट्टारक ने भी मैत्रक वंश की स्थापना की.

475 ईसवी में मैत्रक वंश की स्थापना होने के बाद प्रथम राजा भट्टारक बने. इनके बाद इनका पुत्र धरसेन राजा बने. मैत्रक वंश का इतिहास उठाकर देखा जाए तो धरसेन के उत्तराधिकारी “महाराज या महासामंत महाराज” के नाम से मशहूर हुए.

2. द्रौणसिंह

भट्टारक और उनके पुत्र धरसेन के पश्चात् मैत्रक वंश में अगले शासक द्रौणसिंह हुए जो इस वंश के तीसरे शासक के रूप में जाने जाते हैं. राजा द्रोणसिंह गुप्त शासक बुधगुप्त द्धारा महाराज के पद पर बैठाया गया था. इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि द्रोणसिंह स्वतंत्र शासक ना होकर गुप्त शासक बुधगुप्त के अधीनस्थ थे.

3. ध्रुवसेन प्रथम

ध्रुवसेन प्रथम मैत्रक वंश के चौथे शासक और द्रोणसिंह के भाई और मैत्रक वंश का इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण राजा थे. अपने भाई की मृत्यु उपरांत ये राजगद्दी पर बैठे. ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर इनके राजा बनने की समय अवधि लगभग 545 ईस्वी थी.

अपने भाई द्रोणसिंह की तरह, ध्रुव सेन प्रथम भी गुप्त शासकों के अधीन काम करते थे. इनके समय वल्लभी गुप्त वंश के अधिनस्थ था. ध्रुवसेन प्रथम को भूमि दान देने के लिए जाना जाता हैं. इन्होंने स्वयं को परमभट्टारकपादानुध्यात की उपाधि दी.

ध्रुवसेन प्रथम के इतिहास को दर्शाते 16 दान पात्र प्राप्त हुए. राजा ध्रुवसेन प्रथम के बाद इस वंश में कई छोटे छोटे राजा हुए जिनमें धरनपट्ट और गुहसेन शामिल है. गुहसेन के समय लगभग 550 ईस्वी के आसपास मैत्रक वंश गुप्तवंश की अधीनता से मुक्त हो गया, साथ ही दूसरी तरफ देखा जाए तो गुप्तवंश के पतन का समय भी यही था.

गुप्त वंश की अधीनता समाप्त हो जाने की वजह से ही गुहसेन के पात्रों में परमभट्टारकपादानुध्यात का उल्लेख नहीं मिलता है. गुहसेन के बाद उनका पुत्र धरसेन द्वितीय और धरसेन द्वितीय का बेटा विक्रमादित्य प्रथम या धर्मादित्य इस वंश के क्रमशः राजा हुए.

4. शिलादित्य प्रथम 

बौद्ध धर्म को मानने वाले शिलादित्य के विषय में चीनी यात्री हेनसांग ने भी लिखा है कि शिलादित्य योग्य और उदार शासक था. इनके राजा बनने तक मैत्रक वंश का राज्य पश्चिमी मालवा, कच्छ और गुजरात के विशाल भूभाग तक फैल चुका था. इनके समय में भी वल्लभी पश्चिमी भारत का शक्तिशाली राज्य बन कर उभरा.

शिलादित्य ने अपने कार्यकाल में एक बौद्ध मंदिर का निर्माण भी करवाया था.

5. धरसेन तृतीय

सन 623 ईस्वी के लगभग मैत्रक शासक शिलादित्य प्रथम की मृत्यु के पश्चात इस वंश में अगले सम्राट खरग्रह और धरसेन तृतीय राजा हुए. आगे चलकर इस वंश में ध्रुवसेन द्वितीय ने कुछ समय तक शासन किया था.

6. धरसेन चतुर्थ

लगभग 646 ईस्वी के आसपास ध्रुवसेन द्वितीय के पश्चात् धरसेन चतुर्थ मैत्रक वंश के शासक बने. इनके बारे में कहा जाता हैं कि परमभट्टारक, परमेश्वर, चक्रवर्ती और महाराजधिराज की उपाधियां धारण की थी. इन्होंने भड़ौच को जीता.

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