Nana Saheb history in hindi:-
नाना साहेब (Nana Saheb) महान स्वतंत्रता सेनानी और प्रभावशाली मराठा शासक थे. स्वतंत्रता सेनानी नाना साहब 1857 की क्रांति में अपने अभूतपूर्व योगदान की बदौलत विश्व विख्यात हैं. नाना साहब को नाना धुंधुपंत के नाम से भी जाना जाता हैं. महान मराठा छत्रपति शिवाजी महाराज और संभाजी महाराज के बाद नाना साहेब का नाम संपूर्ण भारतवर्ष में गूंजता है. नाना साहेब को एक महान स्वतंत्रता संचारक के रूप में याद किया जाता है. अंत में नाना साहब को भारत छोड़कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी थी.
पेशवा बाजीराव बल्लाल भट्ट द्वितीय का कोई वारिस नहीं था इसलिए उन्होंने नाना साहब को गोद ले लिया और बिठूर का पेशवा नियुक्त किया. नाना साहेब का इतिहास (Nana Saheb history in hindi) हमारे लिए प्रेरणीय हैं. नाना साहेब के जीवन परिचय (Nana Saheb Jeevani) को पढ़कर हम अपने जीवन में सकारात्मक परिणाम प्राप्त कर सकते हैं.
नाना साहेब का इतिहास और जीवन परिचय (Nana Saheb Jeevani In Hindi)
पूरा नाम | नाना साहेब (Nana Saheb). |
अन्य नाम | धोंडूपंत और बालाजी बाजीराव. |
जन्म तिथि | 19 मई 1824. |
जन्म स्थान | वेणुग्राम, महाराष्ट्र. |
मृत्यु तिथि | 6 अक्टूबर 1858. |
मृत्यु स्थान | सीरोह, गुजरात |
पिता का नाम | माधवनारायण भट्ट. |
माता का नाम | गंगाबाई. |
नाना साहब की पुत्री | बाया बाई. |
नाना साहब का पुत्र | शमशेर बहादुर. |
नाना साहब के भाई | रघुनाथ राव और जनार्दन. |
राष्ट्रीयता | भारतीय. |
परदादा और परदादी | बाजीराव प्रथम और काशीबाई. |
प्रसिद्धि की वजह | स्वतंत्रता सेनानी और पेशवा. |
19 मई सन 1824 को वेणुग्राम नामक गांव में महान स्वतंत्रता सेनानी और भारतीय स्वतंत्रता के प्रथम संग्राम के शिल्पकार नाना साहब का जन्म हुआ था. नाना साहब के पिता का नाम माधवनारायण भट्ट था जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के गोत्र भाई थे. इनकी माता का नाम गंगाबाई एवं नाना साहब की पुत्री का नाम बाया बाई था. इनके जन्म के समय भारत में अंग्रेजों ने पैर पसारना शुरू कर दिया था. अंग्रेजों का मुख्य उद्देश्य व्यापार को बढ़ाने के साथ-साथ भारत के अधिकतर क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित करना था ताकि मनमाने तरीके से व्यापार किया जा सके.
यह वह समय था जब पेशवा बाजीराव द्वितीय कानपुर (बिठूर) में रहने लगे. पेशवा बाजीराव द्वितीय के साथ-साथ माधवनारायण भट्ट और उनकी पत्नी गंगाबाई भी कानपुर चले गए जहां पर उन्होंने महान स्वतंत्रता सेनानी नाना साहब (Nana Saheb) को जन्म दिया. नाना साहब के पिता माधव नारायण भट्ट पेशवा के सानिध्य में काम करते थे. Nana Saheb के काम से पेशवा बहुत अधिक प्रभावित भी थे, जब पेशवा के कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने नाना साहब को गोद ले लिया.
कानपुर में रहते हुए गंगा किनारे नाना साहेब (Nana Saheb) ने युद्ध की बारीकियां सीखी जिसमें घुड़सवारी, मल्लयुद्ध और तलवार चलाने की कला मुख्य थी. इस समय किसी को नहीं पता था कि नाना साहब के रूप में एक ऐसा स्वतंत्रता सेनानी तैयार हो रहा था जो आने वाले समय में भारतीय इतिहास में देश प्रेम के लिए हमेशा के लिए अमर हो जाएंगे.
पेशवा परिवार के साथ पले बढ़े नानासाहेब (Nana Saheb) में बचपन से ही देश प्रेम कूट कूट कर भरा था. 1857 के सिपाही विद्रोह कराने में गुप्त रूप से भाग लेने वाले अजीम उल्लाह खान इनके वेतन भोगी कर्मचारी थे. अपने अदम्य साहस के लिए विश्व विख्यात नाना साहब को जब पता चला कि 1 जुलाई 1857 को अंग्रेजों ने कानपुर छोड़ दिया, तब उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा करते हुए पेशवा की उपाधि धारण की. नाना साहब हमेशा क्रांतिकारी सेनाओं का नेतृत्व करते रहे.
नाना साहब की अंग्रजों के खिलाफ़ बगावत
अधिकतर मराठा साम्राज्य पर अंग्रेजी हुकूमत का अधिकार हो गया. ऐसे में पेशवा बाजीराव द्वितीय को अंग्रेजों की तरफ से ₹800000 सालाना पेंशन मिलती थी, जिससे उनका खर्चा चलता. यह राशि उन्हें रॉयल्टी के रूप में प्राप्त होती थी. जब 28 जनवरी 1851 में बाजीराव पेशवा द्वितीय की मृत्यु हो गई तब अंग्रेजों ने नाना साहब (Nana Saheb) को उनका उत्तराधिकारी मानने से मना कर दिया.
इसके पीछे अंग्रेजों ने तर्क दिया कि नाना साहब दत्तक पुत्र है अतः उन्हें उत्तराधिकारी नहीं माना जा सकता. यह कहकर उन्होंने मिलने वाली पेंशन को बंद कर दिया. इस बात से नाना साहब को गहरी ठेस लगी. सन 1853 में नाना साहब ने अपने यहां वेतन भोगी कर्मचारी एवं अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी, उर्दू, फ्रेंच और हिंदी भाषा के अच्छे जानकार अजीम उल्लाह खान को पेंशन पुनः शुरू करवाने के लिए और इस सम्बंध में अंग्रेज अफसरों से बातचीत करने के लिए लंदन भेजा.
नाना साहब (Nana Saheb) की दलील लेकर जब अजीम उल्लाह खान लंदन पहुंचे और अंग्रेजी अफसरों से बातचीत की तो उन्होंने उनकी मांगे मानने से मना कर दिया. नाना साहब के सचिव अजीम उल्लाह खान बैरंग लौट आए. अंग्रेजों के इस रवैया से नाना साहेब को बहुत ठेस पहुंची और उन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ बगावत को चुना. इस घटना के बाद नाना साहब कभी नहीं रुके, लगातार अंग्रेजो के खिलाफ लड़ते रहे और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों का भी साथ दिया ताकि अंग्रेजों को समूल भारत से उखाड़ फेंका जा सके.
1857 का स्वतंत्रता संग्राम और नाना साहब (Freedom struggle of 1857 and Nana Saheb)
अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का मन बनाए बैठे नाना साहब (Nana Saheb) को जब यह बात पता लगी कि मेरठ छावनी के सिपाहियों ने महान स्वतंत्रता सेनानी मंगल पांडे के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह की आग लगा दी है, तो वह बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने भी कानपुर में अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह का रास्ता अपनाया.
स्वतंत्रता सेनानी तात्या टोपे के साथ मिलकर नाना साहब ने सन 1857 में स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. कानपुर में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन होने लगे जिनका नेतृत्व नाना साहब और तात्या टोपे मिलकर कर रहे थे.
जब नाना साहब (Nana Saheb) खुलकर राष्ट्र मुक्ति संघर्ष में कूद पड़े तब एक बड़ा जनसमूह उनके साथ खड़ा हो गया और नाना साहब के नेतृत्व में ही अंग्रेजों को कानपुर छोड़कर जाना पड़ा. नानासाहेब ने पुनः कानपुर को अपने कब्जे में लेते हुए स्वतंत्रता का झंडा फहरा दिया जो आगामी कई महीनों तक लहराता रहा.
अंग्रेजी हुकूमत भी कहां चुप रहने वाली थी उन्होंने हैवलॉक के नेतृत्व में एक विशाल सेना के साथ कानपुर पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण का जवाब स्वतंत्रता सेनानियों द्वारा बड़ी ही वीरता के साथ दिया गया. कई समय तक चले इस खूनी संघर्ष में अंग्रेजों की जीत हुई और उन्होंने कानपुर को पुनः अपने कब्जे में ले लिया.
भारत में कई जगह ऐसे देशद्रोही लोग भी मौजूद थे जिन्होंने खुलेआम अंग्रेजों का साथ दिया. एक साथ संपूर्ण देश में 1857 की क्रांति की लहर नहीं फैल सकी और कुछ लोगों द्वारा अंग्रेजों का साथ दिए जाने की वजह से 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल हुआ. जब 1857 का स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया तब नाना साहब (Nana Saheb) को अपने परिवार के साथ भारत छोड़कर नेपाल में शरण लेनी पड़ी. कई इतिहासकारों का यह मानना है कि नेपाल में नानासाहेब को शरण नहीं दी गई. लेकिन यह सत्य नहीं है.
सत्ती घाट नरसंहार घटना क्या थी?
दरअसल हुआ यह कि सन 1857 में नानासाहेब (Nana Saheb) और अंग्रेज अधिकारियों के बीच समझौता हो गया था. लेकिन जब कानपुर के कमांडिंग अधिकारी जनरल व्हीलर सैन्य शक्ति के साथ कानपुर आ रहे थे, तब नाना साहब ने उन पर आक्रमण कर दिया और उनकी सेना को तहस-नहस कर दिया. इस लड़ाई में कई अंग्रेज सिपाही मौत के घाट उतार दिए गए.
इस घटना ने अंग्रेजी हुकूमत को झकझोर कर दिया. अब ब्रिटिश हुकूमत पूर्ण रूप से नाना साहब के खिलाफ हो चुकी थी, उन्हें किसी भी कीमत पर नाना साहब को पकड़ना था और उन्हें सजा देनी थी.
पूरे दमखम के साथ नाना साहब के मुख्य ठिकाने बिठूर पर अंग्रेजों ने हमला कर दिया. इस हमले में नाना साहब बच निकले और ऐसा कहा जाता है कि इसी हमले के बाद नाना साहब भारत छोड़कर नेपाल चले गए थे.
नाना साहब का खजाना और अंग्रेजों की लूट
मराठा साम्राज्य के पेशवा होने के कारण अंग्रेज यह भली-भांति जानते थे कि नाना साहब के पास अपार धन संपदा होगी. लेकिन जब नाना साहब कानपुर छोड़कर नेपाल चले गए तो अंग्रेजों के पास यह सुनहरा मौका था कि उनके महल में उनके छिपे हुए खजाने को ढूंढा जाए.
अंग्रेजों ने एक बड़ी सेना को नाना साहब के महल में खजाने की खोज में लगा दिया. सेना ने ना सिर्फ पूरे महल को तहस-नहस कर दिया बल्कि उस खजाने को भी खोज निकाला जिसमें कई सोने की प्लेटें और सोने की ईंटें निकली. इतना बड़ा खजाना प्राप्त कर लेने के बाद भी अंग्रेजों को यह संदेह था कि इसका बहुत बड़ा हिस्सा नाना साहब अपने साथ लेकर चले गए हैं.
यह सिर्फ नाना साहब (Nana Saheb) के साथ नहीं हुआ. संपूर्ण भारत में कई ऐसे राजाओं के साथ अंग्रेजों द्वारा इस तरह की लूट की गई अन्यथा सोने की चिड़िया कहलाने वाला भारत आसानी से निर्धन नहीं होता. हालांकि आज भी भारत संपूर्ण दुनिया का पेट भरने का माद्दा रखता है.
नाना साहब की मृत्यु कैसे हुई? (How did Nana Saheb die)
नाना साहब की मृत्यु कैसे हुई इस सवाल का जवाब अभी भी इतिहासकार सटीक रूप से नहीं दे पाए हैं. नेपाल चले जाने के बाद नाना साहब वहां पर देवखारी नामक गांव में रहने लगे. इस दौरान तेज बुखार ने उन्हें चपेट में ले लिया. बहुत उपचार करने के बाद भी बुखार ठीक नहीं हुआ और महज 34 वर्ष की आयु में महान स्वतंत्रता सेनानी और 1857 की क्रांति का बिगुल बजाने वाले नाना साहेब ने 6 अक्टूबर 1858 को प्राण त्याग दिए.
दूसरी तरफ इतिहासकारों का एकदम का यह मानता है कि नाना साहब की मृत्यु गुजरात के सिरोह में हुई थी. इस संबंध में कई साक्ष्य भी उपलब्ध है जिनमें नाना साहेब के पुत्र केशव लाल द्वारा सुरक्षित रखे गए नागपुर, पुणे, दिल्ली और नेपाल से आए पत्र, नाना साहब की पोथी, उनकी पूजा के ग्रंथ और मूर्तियां, नाना साहब की मृत्यु के वक्त उनकी सेवा में लगी जड़ी बहन के घर से प्राप्त ग्रंथ, छत्रपति पादुका, जड़ीबेन द्वारा न्यायालय में दिए गए बयान यह साबित करते हैं कि सीरोह, गुजरात के स्वामी दयानंद योगेंद्र ही नाना साहब (Nana Saheb) थे.
मेहता जी और मूल शंकर भट्ट के घरों से प्राप्त पोथियों के अनुसार बीमारी के बाद नानासाहेब की मृत्यु मूल शंकर भट्ट के निवास पर भाद्रपद मास की अमावस्या को हुआ था. प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इस बात पर विश्वास किया जा सकता है. नाना साहेब मृत्यु के समय 34 वर्ष की आयु थी.
नाना साहब के बारे में 10 लाइन (10 Lines About Nana Saheb)
नाना साहब के बारे में 10 लाइन निम्नलिखित है–
[1] नाना साहब (Nana Saheb) एक बहुत बड़े क्रांतिकारी थे जिन्होंने स्वतंत्रता में बहुत बड़ा योगदान दिया था.
[2] नाना साहब को 1857 की क्रांति अर्थात प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के शिल्पकार के रूप में जाना जाता है.
[3] नाना साहब का जन्म 19 मई 1824 को हुआ था.
[4] नाना साहब का जन्म महाराष्ट्र के बिठूर जिले के वेणुग्राम नामक गांव में हुआ था.
[5] Nana Saheb के पिता का नाम माधव नारायण भट्ट और माता का नाम गंगाबाई था.
[6] नाना साहब के दो भाई थे एक का नाम रघुनाथ राव और दूसरे का नाम जनार्दन था.
[7] नाना साहब के पुत्र का नाम शमशेर बहादुर था.
[8] नाना साहब ने लगभग 20 वर्षों तक अंग्रेजों के साथ संघर्ष किया.
[9] नाना साहब (Nana Saheb) बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे.
[10] नाना साहब की मृत्यु 6 अक्टूबर 1858 को तेज बुखार की वजह से हुई थी.
नाना साहब का इतिहास (Nana Saheb history in hindi) और नाना साहब का जीवन परिचय (Nana Saheb Biography in hindi) हमारे लिए गर्व का विषय हैं, इसे आने वाली पीढ़ियों को भी पढ़ना चाहिए,धन्यवाद।