Parashuram Pant Pratinidhi या परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी (1660–1718 CE) जो कि परशुराम पंत प्रतिनिधि के रूप में ज्यादा लोकप्रिय थे, मराठा साम्राज्य के एक मंत्री (प्रधान) और गणना (सरदार) थे।
उन्होंने छत्रपति राजाराम और ताराबाई के शासनकाल के दौरान प्रधानिधि (मुख्य प्रतिनिधि) के रूप में कार्य किया।
27 वर्षों के युद्ध में उनके योगदान को महत्वपूर्ण महत्व माना जाता है। वे महाराष्ट्र में विशालगढ़ (VishalGarh) और औंध (Aundh) की रियासतों के संस्थापक भी थे।
‘प्रतिनिधि’ शीर्षक का पहला वंशानुगत प्राप्तकर्ता, जिसका अर्थ है ‘राजा का प्रतिनिधि’ या वाइसराय, परशुराम त्र्यंबक पंत थे, जो शिवाजी के दरबार में एक रिकॉर्डर और दुभाषिया थे। 1698 में शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम द्वारा उन्हें ‘प्रतिनिधि’ की उपाधि दी गई थी।
Parashuram Pant Pratinidhi History या परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी का इतिहास-
- पूरा नाम Full name– परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी
- अन्य नाम Other names– परशुराम त्र्यंबक पंत प्रतिनिधि।
- जन्म वर्ष Birth Year– 1660 ईस्वी।
- जन्म स्थान Birth place– किन्हाई, सतारा ( ज़िला सतारा, महाराष्ट्र).
- पिता का नाम Parashuram Pant Pratinidhi Father’s name– त्रयंबक कृष्णा ( Trimbak Krishna).
- मृत्यु वर्ष death year– 1718 ईस्वी।
- मृत्यु स्थान death place– औंध (Aundh, जिला सतारा, महाराष्ट्र).
- संताने Issue – श्रीमंत कृष्णजी परशुराम त्रयंबक ,त्रिम्बक राव पंत ,श्रीमंत श्रीनिवास राव परशुराम , श्रीमंत जगजीवन राव ,सदाशिव राव पंत ,गोदु बाई ,येसु बाई।
- साम्राज्य Empire– मराठा साम्राज्य।
- पद Post– प्रतिनिधि
- बाद में प्रतिनिधि succeeded–
औंध- श्रीमंत श्रीनिवासराव परशुराम ( Shrimant Shriniwasrao Parusharam).
विशालगढ़ – कृष्णाराव पंत प्रतिनिधि (Krishnarao Pant Pratinidhi) .
परशुराम त्र्यंबक (Parashuram Pant Pratinidhi) का जन्म 1660 में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में कन्हाई गाँव में हुआ था। उनके पिता त्र्यंबक कृष्ण पाठपूजा और भक्तिभाव में विश्वास रखने वाले व्यक्ति के साथ साथ बहुत ही सरल स्वाभाव के व्यक्ति थे। त्र्यंबक कृष्ण उनके पैतृक गाँव कन्हाई और आसपास के गांवों के कर (tax) संग्रहणकर्ता थे।
मात्र 14 वर्ष की आयु में परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी (Parashuram Pant Pratinidhi) विशालगढ़ चले गए और राम चंद्र अमात्य के सानिध्य में मराठा साम्राज्य के एक क्लर्क के रूप में कैरियर की शुरुआत की थी।
परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी को अपनी योग्यता और कार्यक्षमता का फल मिला।
जल्द ही राम चंद्र अमात्य के डिप्टी के रूप में पदोन्नत किया गया साथ ही वासोटा किले में सैन्य देख रेख और प्रशासनिक कार्यों की देखभाल के लिए इनकी नियुक्ति की गई जो इनके लिए बहुत बड़े सम्मान की बात थी।
1689 ईस्वी की बात हैं परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी को पहली बार बड़ा दायित्व देते हुए पन्हाला किले की नाकाबंदी के लिए तैनात किया गया। यही समय था जब परशुराम ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय देते हुए औरंगजेब के खिलाफ मोर्चा खोला।
हालाँकि इनके साथ राम चंद्र अमात्य भी थे लेकिन मुग़लों ने आक्रमण कर दिया और इस किले को अपने कब्जे में ले लिया।
परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी (Parashuram Pant Pratinidhi) हार मानने वालों में नहीं थे। मात्र 3 वर्षों के पश्चात सन 1692 में परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी ने फिर से पन्हाला किले को मुक्त करवाने के लिए मुगलों के खिलाफ धावा बोल दिया। कुशल रणनीति और बहादुरी के साथ इन्होंने मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए।
मिराज और प्रचेतगढ़ ( रंगना ) जैसे किलों को जीतने के लिए परशुराम त्र्यंबक ने राम चंद्र अमात्य के सहारे एक विजयी अभियान चलाया। इन दोनों किलों को जीतते हुए मुग़लों के बड़े भूभाग पर इन्होंने कब्ज़ा कर लिया।
मुग़लों के अधीनस्थ भूदरगढ़ और चंदनगढ़ जैसे सामरिक रूप से महत्वपूर्ण किलों को जीत लिया।
परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी के त्याग ,वीरता और बहादुरी को देखकर छत्रपति राजाराम ने इन्हें “शुभा लश्कर और शमशेर जंग ” जैसी उपाधियों से सम्मानित किया था। इतना ही नहीं आगे चलकर इन्हें मुख्य प्रधानपति या प्रतिनिधि के पद से सम्मानित किया गया
औरंगजेब मराठों का सामना करके जीत हासिल करने में सक्षम नहीं था अतः उसने मराठों को दौड़ने के इरादे से परशुराम पंत को एक पत्र लिखा।
यह पत्र बहुत ही गुप्त था लेकिन परशुराम पंत तक जाने के लिए इसे रामचंद्र अमात्य के हाथों से गुजरने की व्यवस्था थी।इसमें लिखा था कि परशुराम पंत मुग़ल शिविर में एक विचार विमर्श के लिए शामिल हो।
हालांकि इस पत्र के लिखे जाने के पीछे की कहानी मराठी सरदारों को तोड़ने की चाल थी।
औरंगजेब ने एक पत्र परशुराम पंत को लिखा जिसमें रामचंद्र अमर्त के खिलाफ बयानबाजी की गई थी जबकि दूसरा पत्र रामचंद्र अमात्य को लिखा जिसमें परशुराम पंथ के खिलाफभड़काया गया लेकिन औरंगजेब की यह टेक्निक काम नहीं आई।
दिसंबर 1699 से लेकर अप्रैल 1700 के बीच सातारा किले ( Satara Fort) को औरंगजेब द्वारा घेर लिया गया और मराठी सेना के राशन व्यवस्था को ठप करने का प्रयास किया गया।लेकिन ऐसे समय में परशुराम पंत ने जिम्मा उठाया और पराली किले से मराठा सेना को खाद्य सामग्री के साथ-साथ गोला बारूद भी उपलब्ध करवाया।
सन् 1700 ईस्वी में ही मराठा साम्राज्य के “छत्रपति राजा राम” की मृत्यु हो गई जो मराठा साम्राज्य के लिए एक बहुत बड़ी क्षति थी राजाराम की मृत्यु के पश्चात मराठा साम्राज्य की कमान ताराबाई के हाथ में आ गए।
ताराबाई को परशुराम त्र्यंबक कुलकर्णी पर अटूट विश्वास था, जिसके चलते परशुराम पंत ताराबाई के सबसे खास व्यक्ति बन गए।
छत्रपति राजाराम की मौत के बाद “ताराबाई” अपने पुत्र “शिवाजी द्वितीय” को छत्रपति के पद पर आसीन करने के लिए परशुराम पंत (Parashuram Pant Pratinidhi) से मदद मांगी।
1702 ईस्वी में विशालगढ़ किले को बचाने के लिए मुगलों के खिलाफ निरंतर लड़ाई लड़ी हालांकि इस समय कुछ मराठी सरदार मुगलों का साथ दे रहे थे लगातार 5-6 महीने तक चले इस युद्ध में 6000 से अधिक मुगल सैनिक मारे गए।
युद्ध बंद होने का नाम नहीं ले रहा था मराठी सेना में भी दरार पड़ गई थी जिसके चलते औरंगजेब के साथ संधि करनी पड़ी। इस संधि के तहत 4 जून 1702 को यह किला औरंगजेब को सौंप दिया गया साथ ही 2 लाख रुपए और आगामी 5 वर्षों तक इस किले पर औरंगजेब का अधिकार रहेगा।
लेकिन परशुराम पंत ने इस संधि को तोड़ दिया और मात्र 3 साल बाद ही मराठी सेना को मजबूत करते हुए पन्हाला किला, पावागढ़ किला, सातारा और वसंतगढ जैसे महत्वपूर्ण किलों को पुनः मराठा साम्राज्य में मिलाया।
साहूजी की रिहाई-
“साहूजी महाराज” जो कि पिछले कई वर्षों से मुगल सेना द्वारा कैद कर ले गए थे उन्हें रिहा कर दिया गया हालांकि यह रिहाई भी मुगलों की एक चाल थी ताकि मराठा सरदारों में दरार पैदा करके तोड़ा जा सके।
साहूजी महाराज के बाहर आने के बाद मराठों में गृह युद्ध की शुरुआत हुई। पूरा मराठा साम्राज्य और उनका साथ देने वाले सरदार दो भागों में बंट गए।
एक वह सरदार जो ताराबाई का साथ दे रहे थे जबकि कुछ सरदार साहूजी महाराज के समर्थन में थे।
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साहूजी महाराज और परशुराम पंत (Parashuram Pant Pratinidhi) के बीच युद्ध की शुरुआत हो गई। इस युद्ध में परशुराम पंत की हार हुई और उन्हें साहूजी महाराज ने बंदी बना लिया।
कुछ समय बाद 1710 ईस्वी में परशुराम पंत को पुनः रिहा कर दिया गया और साहूजी महाराज ने पुनः “प्रतिनिधि” का पद उन्हें दिया। संकोच के साथ परशुराम पंत कुलकर्णी ने यह पद स्वीकार किया।
साहूजी महाराज द्वारा उन्हें औंध (aundh) में सामंती सम्पत्ति (जेहगिरी) और विशालगढ़ में उनकी जेहगिरी को बरकरार रखा गया।
देवी के बहुत बड़े भक्त होने के नाते परशुराम बंद ने देवी की प्रशंसा में कई कविताएं लिखी।
मृत्यु (Death)-
परशुराम त्र्यंबक पंत प्रतिनिधि (Parashuram Pant Pratinidhi) की मृत्यु 1718 में सतारा के पास महुली में हुई, और उनके तीसरे पुत्र श्रीपत्रो (श्रीनिवास राव) प्रतिनिधि ने औंध राज्य के प्रतितिनिधि के रूप में और विशालगढ़ की संपत्ति उनके पहले पुत्र कृष्णजीराव पंत प्रतिनिधि द्वारा प्राप्त की।
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