पृथ्वीराज रासो, पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र का वर्णन करता हिंदी भाषा में लिखित एक बहुत ही सुन्दर महाकाव्य हैं। इस महाकाव्य की रचना पृथ्वीराज चौहान के बचपन के प्रिय मित्र और राज कवि चंदबरदाई द्वारा की गई हैं। इसमें लगभग 2500 पृष्ठ हैं।
वीर रस की कविताओं से भरा यह ग्रन्थ पृथ्वीराज चौहान पर लिखा हुआ अब तक का सबसे सर्वश्रेष्ठ और प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता हैं। पृथ्वीराज रासो में 69 सर्ग हैं, जिसमें मुख्य छन्द कवित्त ,दोहा ,त्रोटक ,गाहा और आर्या हैं।
इसमें दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चौहान के जीवन की घटनाओं का उल्लेख मिलता हैं। इसकी रचना 13 वीं सदी में हुई थी,इसका इतिहास और प्रमाणिकता विवादास्पद मानी जाती हैं।
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पृथ्वीराज रासो की सम्पूर्ण जानकारी-
- पृथ्वीराज रासो किसने लिखा- चंदबरदाई ने।
- कब लिखा– 13 वीं सदी में।
- किसके बारें में– पृथ्वीराज चौहान का जीवन और चरित्र का वर्णन।
- कुल पृष्ठ- 2500.
- पृथ्वीराज रासो में सर्ग– 69 हैं।
- पृथ्वीराज रासो को पुर्ण किसने किया– जल्हण ने (चंदबरदाई का पुत्र ).
पृथ्वीराज रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गौरी द्वारा पृथ्वीराज चौहान को बंदी बनाकर गजनी ले गया उसके पश्चात् चंदबरदाई भी वहाँ जाने के लिए तैयार हो गए और उनके पुत्र जल्हण को रासो को पूरा करने का काम सौंपा गया।
रासो को जल्हण के हाथ में सौंपे जाने तथा उसको पूरा करने को लेकर इस ग्रंथ में एक उल्लेख मिलता हैं –
पुस्तक जल्हण हत्थ दै चलि गज्जन नृपकाज।
रघुनाथनचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।
पृथिराजसुजस कवि चंद कृत चंदनंद उद्धरिय तिमि।।
पृथ्वीराज रासो में उल्लेखित तथ्यों को कई इतिहासकार सही नहीं मानते हैं। इसकी सबसे प्राचीन प्रति बीकानेर के राजकीय पुस्तकालय में प्राप्त हुई हैं, जिसमें इस बात का वर्णन किया गया हैं कि पृथ्वीराज चौहान ने शब्दभेदी बाण चलाकर गौरी को मौत के घाट उतरा था। रासक परम्परा का यह काव्य पृथ्वीराज चौहान के जीवन में घटित घटनाओं पर आधरित हैं।
पहले इस महाकाव्य का एक ही विशाल रूप मौजूद था, जिसमें लगभग 11 रूपक थे। इसके बाद पृथ्वीराज रासो का एक छोटा रूप देखने को मिला जिसमें लगभग साडे 3500 रूपक थे। कुछ समय पश्चात एक नया रूप देखने को मिला जिसमें 1200 रूपक थे। यह सिलसिला यहीं पर नहीं थमा 450 और 550 रूपक की दो प्रतियां भी प्राप्त हुई।
अगर विद्वानों की माने तो इसको लेकर उन्होंने एकदम अलग मत प्रकट किए। उनकी मान्यता के अनुसार पृथ्वीराज रासो का सबसे बड़ा रूप ही इसका मूल रूप रहा होगा। धीरे-धीरे उसी को संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया गया होगा।
इनका मानना था कि अब तक इसके जितने भी रूप आए हैं, उन सब में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता है। सन 1955 में पृथ्वीराज रासो के 3 पाठों का समायोजन करके निरीक्षण करने पर यह ज्ञात हुआ कि इनका विकास अलग-अलग समय में हुआ है इसलिए मतभेद खड़ा हुआ।
पृथ्वीराज रासो प्रमाणिकता
पृथ्वीराज चौहान और जयचंद के छूट के बारे में कोई निश्चित ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। पृथ्वीराज चौहान अजमेर का शासक जबकि गोविंद राय या खंडेराई को दिल्ली का शासक बताया गया है। गोविंद राय पृथ्वीराज चौहान की ओर से युद्ध लड़े थे और दूसरे युद्ध में उनकी मृत्यु हुई थी।
मुसलमान इतिहासकारों के अनुसार मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच केवल दो युद्ध हुए थे। जबकि पृथ्वीराज रासो के अनुसार कुल चार युद्ध हुए थे जिनमें से तीन युद्ध में शहाबुद्दीन उर्फ मोहम्मद गोरी पराजित हुआ था।
मुसलमान इतिहासकारों का मानना है कि पृथ्वीराज चौहान हार के पश्चात सरस्वती नदी के निकट पकड़ा गया और मारा गया है जबकि वहीं दूसरी तरफ पृथ्वीराज रासो के अनुसार मोहम्मद गौरी उन्हें गजनी ले गए। पृथ्वीराज रासो किस समय की रचना है? इसको लेकर भी बहुत मतभेद है।
मुनि जिनविजय नामक एक विद्वान को जैन प्रबंध संग्रह की एक प्रति मिली जिनमें “पृथ्वीराज प्रबंध” और “जयचंद प्रबंध” शामिल थे। इन प्रबंधों में जो छंद मिले हैं, ऐसे ही छंद पृथ्वीराज रासो में भी मिले यद्यपि इन छंदों की भाषा “पृथ्वीराज रासो” की भाषा से अधिक प्राचीनतम मानी गई है। मुनि जी के अनुसार चंद नामक व्यक्ति पृथ्वीराज चौहान का समकालीन या उसका राजकवि हो सकता है।
उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि पृथ्वीराज रासो के संबंध में कुछ ऐतिहासिक तथ्य मौजूद हैं जो इसकी सत्यता को प्रमाणित करते हैं। जबकि कुछ इतिहासकारों ने इसके विपरीत तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं जिनसे इसकी प्रमाणिकता पर प्रश्न उठता है।
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पृथ्वीराज रासो के मुख्य अंश
पृथ्वीराज रासो चंदबरदाई द्वारा लिखित महाकाव्य है जिसकी भाषा पिंगल थी, लेकिन बाद में यह भाषा बृज भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई। इस महाकाव्य में वीर रस और श्रृंगार रस का बहुत ही अच्छा समन्वय देखने को मिलता है।
पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।
ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥
मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।
बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥
बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।
हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥
छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।
पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥
मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।
पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥
सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।
जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥
सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।
कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥
मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।
अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥
यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।
चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥
हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥
तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥
कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।
करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥
कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।
कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥
सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।
भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥
नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।
उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥
नोट- इस लेख को लिखने में विकिपीडिया सहारा लिया गया हैं।
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