राजाराम प्रथम का इतिहास और जीवनी

Last updated on April 19th, 2024 at 09:43 am

राजाराम प्रथम का इतिहास और जीवनी (Rajaram History and Biography In Hindi)

“राजाराम प्रथम “, बड़े भाई छत्रपति संभाजी की मृत्यु के पश्चात तृतीय छत्रपति बने। पहले तो इन्होंने राजा बनने से साफ इनकार कर दिया था लेकिन हिंदवी अर्थात हिंदू और मराठा साम्राज्य को बचाने के लिए यह राजगद्दी पर बैठे।

हालांकि यह छत्रपति संभाजी के सगे भाई नहीं थे बल्कि सौतेले भाई थे।

शासन काल- 11 मार्च 1689 से लेकर 3 मार्च 1700 तक।

पूरा नाम – छत्रपति राजाराम राजे भोंसले (राजाराम प्रथम)।

जन्म- 24 जनवरी 1670.

जन्म स्थान- रायगढ़ दुर्ग।

मृत्यु- 3 मार्च 1700 (सिंहगढ़ दुर्ग महाराष्ट्र, 30 वर्ष की आयु में) ।

पिता का नाम- छत्रपति शिवाजी महाराज।

माता का नाम- सोयराबाई

दादा – शाहजी राजे भोंसले ।

दादी- जीजाबाई।

भाई बहन- संभाजी राजे भोसले, सखूबाई निंबालकर, रणु बाई जाधव, अंबिका बाई महादिक, राजकुमार बाई सीर्के, गुनवांता बाई इंगले।

राज्याभिषेक- 20 फरवरी 1689.

पत्नी- जानकीबाई, ताराबाई, राजस बाई, अंबिका बाई।

संतान- राजा कर्ण , शिवाजी द्वितीय, संभाजी द्वितीय।

घराना- राजे भोंसले घराना।

धर्म- हिंदू।

पूर्वाधिकारी- छत्रपति संभाजी।

उत्तराधिकारी- शिवाजी द्वितीय।

द्वितीय “छत्रपति संभाजी महाराज” को बहुत ही निर्दय तरीके से औरंगजेब ने तड़पा तड़पा कर मार डाला था। इस घटना के पश्चात संपूर्ण मराठा साम्राज्य में रोष था, प्रत्येक व्यक्ति लड़ाई के लिए तैयार था। जिस तरह मुगलों के खिलाफ पुरजोर विरोध और लड़ाई चल रही थी। उसको जारी रखने के लिए एक ऐसे पराक्रमी और तेजस्वी शासक की जरूरत थी जो सभी मराठों को साथ लेकर चल सके और उनका नेतृत्व कर सके।

क्योंकि सेना कितनी भी मजबूत और ताकतवर हो।,फिर भी एक अच्छे रणनीतिकार और नेतृत्वकर्ता का होना जरूरी होता है।संभाजी महाराज की मृत्यु के पश्चात मुगल बहुत ही उत्साहित हो उठे और उनका आत्मविश्वास भी पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ चुका था।

वह निरंतर मराठा उनके अधीन क्षेत्र पर कब्जा करते चाह रहे थे। हिंदवी स्वराज्य अर्थात मराठा साम्राज्य को समाप्त करने के लिए आतुर मुगल सेना निरंतर आगे बढ़ रही थी।

हिंदवी स्वराज्य और मराठा साम्राज्य के जितने भी कोट,चौकियाँ और दुर्ग थे उन पर लगातार मुगलों का अधिकार होता जा रहा था। ऐसे समय में मराठा सरदारों को एक कुशल नेतृत्वकर्ता  की जरूरत थी।

हिंदवी स्वराज्य को समाप्त करने के लिए औरंगजेब खुद दक्कन में कई दिनों से बैठा था। औरंगजेब का सेनापति था “जुल्फीकार खान” उसने राजधानी रायगढ़ को चारों तरफ से घेर लिया।

मुगल शासक औरंगजेब ने लक्ष्य बना रखा था कि इस बार दिल्ली लौटने से पहले दक्षिण की आदिलशाही और कुतुबशाही के साथ साथ समस्त मराठा शक्तियों को धूमिल करके ही दम लेगा।

छत्रपति राजाराम का राज्याभिषेक (Coronation Of Chhatrapati Rajaram)

संभाजी महाराज के मंत्री परिषद के सभी सदस्यों जिसमें “रानी येसु बाई” का नाम भी शामिल था, ने मिलकर “राजाराम प्रथम” को अपना शासक नियुक्त किया।

मंत्री परिषद द्वारा हिंदवी स्वराज्य की रक्षार्थ उठाया गया यह बहुत ही बड़ा कदम था। क्योंकि नियमानुसार  संभाजी के पुत्र साहूजी को राजा बनाना चाहिए था लेकिन वह अभी बहुत छोटे थे।

इस वजह से और औरंगजेब के निरंतर हमलों से परेशान होकर संभाजी महाराज के छोटे भाई राजाराम प्रथम को शासक नियुक्त किया। राजाराम राजगद्दी पर नहीं बैठना चाहते थे लेकिन स्वराज्य की रक्षा के लिए उन्होंने यह पद स्वीकार किया। साथ ही एक शर्त रखी कि वह राजा नहीं है, वह मात्र साहू जी महाराज का प्रतिनिधि है।

“साहूजी महाराज” छत्रपति संभाजी के पुत्र थे। इनको पिता के साथ ही औरंगजेब ने जेल में डाल दिया था और यह अभी तक जीवित थे।

राज नियम के अनुसार साहूजी के जीवित रहते कोई दूसरा राजा नहीं बन सकता था। इसी बात को ध्यान में रखते हुए राजाराम ने राजा के बजाय प्रतिनिधि बनना स्वीकार किया। साहूजी महाराज छत्रपति शिवाजी महाराज के पौत्र तथा छत्रपति संभाजी और सोयराबाई के पुत्र थे। शाहूजी महाराज संभाजी महाराज के वास्तविक उत्तराधिकारी थे।

छत्रपति राजाराम महाराज की युद्ध के लिए घोषणा ( Chhatrapati Rajaram Maharajs Declaration For War)

राजाराम प्रथम ने पद पर आसीन होते ही मुगलों के खिलाफ़ युद्ध की घोषणा कर दी।

यह खबर सुनकर दक्कन में बैठे मुगल बादशाह औरंगजेब भी सोचने लगा कि जिस तरह का वह प्लान कर रहा है,उसको कर पाना आसान नहीं है और मराठी आसानी के साथ हार नहीं मानेंगे। अब क्योंकि उनको नया नेतृत्व  मिल गया है तो वह चुप बैठने वाले नहीं हैं। 

जिंजी किले की ओर प्रस्थान Depatture Towards Jinji Fort)

माता  येसुबाई के मार्गदर्शन में यह निर्णय लिया गया कि राज परिवार के साथ- साथ हिंदवी स्वराज्य की रक्षा को ध्यान में रखते हुए सभी को कर्नाटक में जिंजी किले में चले जाना चाहिए। माता आयेसुबाई का आदेश कोई टाल नहीं सकता था।

इसी आदेश की पालना करते हुए “छत्रपति राजाराम प्रथम” प्रतापगढ़ की ओर निकल पड़े। राजाराम प्रतापगढ़ होते हुए सज्जनगढ़, सतारा , बसंतगढ़ के रास्ते से पन्हालगढ़ पहुंचे।

लेकिन राजाराम की रणनीति मुगल अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उन्होंने छत्रपति राजाराम का पीछा करना उचित समझा। जहां-जहां राजाराम गए उनके पीछे-पीछे मुगल सेना भी चलती रही। पन्हालगढ़ भी मुगलों के घेराव का शिकार बन गया।

अपने गुप्तचरो को औरंगजेब ने राजाराम और मराठा सरदारों के इर्द-गिर्द लगा रखा था। गुप्तचरो के माध्यम से औरंगजेब को सूचना मिली कि राजाराम कर्नाटक के जिंजी किले में जाना चाहते हैं।

जब पन्हालगढ़ के किले को मुगलों द्वारा चारों तरफ से घेर लिया गया तो पूर्व में लिए गए निर्णय के अनुसार राजाराम ने सोचा कि अब कर्नाटक के जिंजी किले में जाना ही पड़ेगा।

गुप्तचरो के द्वारा मिली जानकारी के अनुसार औरंगजेब ने उन सभी रास्तों को बंद कर दिया जिनके द्वारा जिंजी किले तक पहुंचा जा सकता था।अब हिंदवी स्वराज्य और मराठा साम्राज्य की राह बहुत ही कठिन हो चुकी थी।

औरंगजेब के सेनापति थानेदार और सुरक्षाकर्मी चप्पे-चप्पे पर राजाराम की निगरानी कर रहे थे इतना ही नहीं औरंगजेब ने पुर्तगाल के शासक “वायसराय” को भी सूचना दे दी थी कि राजाराम बहुत चतुर हैं और समुद्र के रास्ते से भी जिंजी किले तक जा सकते हैं इसलिए आप सचेत रहें और अगर उस रास्ते से निकले तो तुरंत उन्हें कैद कर दिया जाए।

जब राजाराम प्रथम मुगलों को चकमा देकर घेरे से बाहर निकल आए (Came Out From Deep By Dodging The Mughals)

26 सितंबर 1689 का दिन था। राजाराम और उनके साथी लिंगायत वाणी की वेशभूषा धारण करके वहां से निकल पड़े।

इस समय राजाराम के साथ मानसिंह, प्रहलाद, नीराजी कृष्णाजी अनंत, निल्लो मोरेश्वर, खंडो बल्लाल और बाजी कदम आदि लोग साथ थे। छुपते छुपाते यह सभी लोग घेरे से बाहर निकल आए लेकिन लंबी दूरी पैदल तय नहीं कर सकते थे इसलिए घोड़ों के द्वारा इन्होंने अपनी यात्रा शुरू की।

लेकिन रास्ता बदल दिया क्योंकि यदि यह सीधे दक्षिण की ओर बढ़ते तो मुगल सेना इन्हें पहचान जाती। कृष्णा घाटी के समीप स्थित नरसिंहवाडी पहुंचे। कृष्णा घाटी की उत्तर दिशा में लंबी यात्रा करने के बाद वह पुनः दक्षिण दिशा की ओर बढ़ने लगे।

इस तरह से सभी समस्याओं का सामना राजाराम प्रथम अपने देश की स्वतंत्रता और रक्षा के लिए कर रहे थे।

मार्ग में चलते हुए उन्होंने अपने साथियों जिनमें बहार्जी घोरपडे, मालोजी घोरपड़े, संताजी जगताप, रूपा जी भोसले आदि को इन्होंने पहले ही भेज दिया था, क्योंकि जिस रास्ते से राजाराम जिंजी किले की ओर बढ़ रहे थे, उसमें कोई रुकावट ना आए और यह बीच-बीच में उनसे मिलते भी रहे।

भूख- प्यास, कठिनाइयां सभी को सहते हुए राजाराम निरंतर चलते रहे। जब राजाराम वहां से सुरक्षित निकल गए और बहुत दूरी तय कर चुके थे उसके बाद औरंगजेब और मुगल सेना को यह आभास हुआ कि राजाराम यहां से निकल चुके हैं।

यह राजाराम का चातुर्य था और रणनीति का ही हिस्सा था कि वह मुगलों के चंगुल से सुरक्षित बाहर निकल गए। जैसे ही यह घटना हुई औरंगजेब और मुगल सेना पुनः राजाराम का पीछा करने लगी और उनके बहुत ही करीब पहुंच गई।

करीब पहुंचने के पश्चात उन्हें लगा कि अब यह समुद्र के रास्ते से उधर चले जाएंगे तो उन्होंने पहले ही मुग़ल सेना को आगे भेज दिया ताकि उनका रास्ता रोका जा सके। अब राजाराम के पास एक ही रास्ता था कि इनसे युद्ध किया जाए। रूपा जी भोसले और संताजी जगताप बहुत बड़े पराक्रमी थे।

बरछादार युद्ध के माध्यम से रूपा जी भोसले और संताजी जगताप ने पराक्रम दिखाया और अंततः मुगल सेना को पीछे हटना पड़ा। और राजाराम ने अपनी यात्रा को आगे बढ़ाया।

रानी चेन्नम्मा से सहायता

बदनूर की रानी थी चेन्नमा । चेन्नमा ने जिस तरह से राजा राम की मदद की उसके लिए यह इतिहास में अमर हो गई। अगर रानी चेन्नमा राजाराम की सहायता नहीं की होती तो यह भी संभव था कि राजाराम को मुगल सेना घेर लेती और उन्हें मार भी देती।

लेकिन यह रानी चेन्नम्मा की वजह से संभव हो पाया कि राजाराम अपने गंतव्य तक सुरक्षित पहुंच गए।

रानी चेन्नम्मा को यह भी भली प्रकार से पता था कि राजारम की सहायता करने का सीधा सा अर्थ है मुगल बादशाह औरंगजेब से दुश्मनी मोल लेना।

यह सब जानते हुए भी उन्होंने राजाराम प्रथम की सहायता की जब यह बात मुगल बादशाह औरंगजेब को पता चली कि राजाराम को आगे बढ़ाने के लिए रानी चेन्नमा ने सहयोग दिया था, तो उन्होंने सेना की एक टुकड़ी रानी चेन्नम्मा को दंड देने के लिए भेजी।

तुंगभद्रा में राजाराम का घेराव

तुंगभद्रा तक राजाराम प्रथम सुरक्षित पहुंच गए थे और यहां तक उनको सुरक्षित पहुंचाने में रानी चेन्नम्मा का बहुत बड़ा योगदान था। जिसे हिंदू स्वराज्य और मराठा साम्राज्य कभी नहीं भुला सकता।

यहां तक सुरक्षित पहुंचने के पश्चात भी राजाराम को यह ज्ञात था कि कभी भी मुगल सेना यहां तक पहुंच सकती हैं। क्योंकि मुगल सेना की संख्या बहुत बड़ी थी उनकी सेना की अलग-अलग टुकड़िया बनी हुई थी। प्रत्येक टुकड़ी को अपना अपना कार्य करना था इस वजह से राजाराम एकदम सतर्क थे।

हुआ भी यह जिसका संदेह था मुगल सेना की एक बहुत बड़ी टुकड़ी ने आक्रमण कर दिया। यह रात्रि का समय था लेकिन राजाराम और उनकी सेना सतर्क थी।

मुगल शासक औरंगजेब द्वारा भेजी गई सेना की एक टुकड़ी का नेतृत्व बीजापुर के “सुल्तान सैयद अब्दुल्लाह खान” कर रहा था।

जैसे ही मुगल सेना वहां पर पहुंची सतर्क राजाराम प्रथम की सेना ने उनके ऊपर धावा बोल दिया।  बहुत ही घमासान और भीषण युद्ध हुआ।

इस युद्ध में ना सिर्फ मुगल सेना को बल्कि मराठी सेना को भी बहुत बड़ी क्षति हुई। कई बड़े-बड़े और वीर योद्धा इस युद्ध में वीर-गति  को प्राप्त हुए। कई सेनापतियों और सैनिकों को बंदी बना लिया गया, इतना ही नहीं एक सैनिक ने स्वामी भक्ति दिखाते हुए राजाराम का वेश धारण कर लिया और मुगल सेना की पकड़ में आ गया।

यह देखकर “सैयद अब्दुल्लाह खान” बहुत ही उत्साहित हुआ और उसने समझा कि राजाराम को पकड़ लिया है।

यह खबर मुगल बादशाह औरंगजेब तक भी पहुंचा दी गई कि राजाराम को हमने पकड़ लिया है और बंदी बनाकर अपने साथ लेकर आ रहे हैं। यह सूचना पाते ही औरंगजेब गदगद हो गया और जीत का जश्न मनाने लगा लेकिन उसको यह पता नहीं था कि वह राजाराम नहीं बल्कि एक वीर मराठी सैनिक थे।

क्योंकि राजाराम और उनकी पूरी टुकड़ी घोड़ों पर सवार होकर यात्रा कर रही थी जो कि एक बड़ी गलती थी। गुड सवारों को मुगल सेना आसानी के साथ पहचान जाती इसलिए उन्होंने यहां से अपनी रणनीति में बहुत ही बड़ा बदलाव किया।

राजाराम के समेत सभी सैनिकों ने अपनी वेशभूषा बदल ली। कोई व्यापारी के भेष में आ गया ,कोई साधु संत के भेष में आ गया, कोई गरीब या भिखारी के भेष में आ गया और थोड़ी थोड़ी दूरी बनाकर आगे बढ़ने लगे जिससे कि मुगलों को यह पता नहीं लग सके कि आखिर में राजाराम कौन है।

यह रणनीति कारगर साबित हुई और महाराज राजाराम सुरक्षित बेंगलुरु पहुंच गए।  बेंगलुरु पहुंचने पर वहां के लोगों ने इनका बहुत ही आदर और सत्कार किया।

इन्हें बिठाकर पानी से इनके पैर धोए यह सब होते देख वहां पर मौजूद गुप्तचरों  ने यह सोचा कि हो ना हो यह कोई ना कोई विशिष्ट व्यक्ति है इसीलिए इसका इतना आदर और सत्कार किया जा रहा है यह सूचना उन्होंने औरंगजेब तक पहुंचा दी।

औरंगजेब ने तुरंत ही अपनी सेना राजाराम को मारने के लिए या फिर पकड़ने के लिए बेंगलुरु की तरफ भेज दी। खंडो बल्लाल नामक वीर मराठी सैनिक ने इनकी पूरी सहायता की और राजाराम से आग्रह किया कि जितना जल्दी हो सके वह यहां से निकल जाए।

इसी में आपकी और हिंदू स्वराज्य के साथ-साथ मराठा साम्राज्य की भी भलाई है। खंडो बिलाल की बात मानकर राजाराम यहां से निकल गए और इतने में औरंगजेब की सेना ने आक्रमण कर दिया।  इस युद्ध में खंडो बल्लाल को बंदी बना लिया गया, इनके साथ ही कई वीर योद्धाओं को बंदी बना लिया गया जिनके साथ क्रूरता पूर्वक व्यवहार किया गया।

छत्रपति राजाराम प्रथम का अंबुर आगमन

बेंगलुरु से निकलकर यह लगातार चलते रहे और 33 दिन बाद यह अंबुर पहुंचे। अंबुर में मराठों का ही राज था। “बाजी काकडे” नामक मराठी सरदार यहां का राजा था।

बाजी काकडे ने राजा राम को आश्वासन दिया कि आप स्वतंत्र रूप से यहां पर रह सकते हैं ,यहां पर आपको कोई खतरा नहीं है। साथ ही मेरी जितनी भी सेना है वह आपकी सेवा में तत्पर है। यहां से निकलने के बाद राजाराम वेल्लोर होते हुए जिंजी किले की तरफ बढ़े।

जिंजी किले का निर्माण छत्रपति शिवाजी महाराज ने करवाया था यह एक अभेद किला था जिसे दुश्मन भेज नहीं सकते थे।

कर्नाटक में मराठा के सूबेदार संभाजी राजा के समय यह किला हरजी राजे महादिक के अधीन था। राजाराम के यहां पहुंचने से कुछ समय पहले ही हरजी राजे महादिक का निधन हो गया था।

इनके निधन के पश्चात इनकी पत्नी और राजाराम की सौतेली बहन यहां पर शासन कर रही थी इन्होंने इस किले को बचाने के लिए पहले राजाराम का रास्ता रोका लेकिन हिंदवी स्वराज्य और मराठा साम्राज्य के विस्तार और रक्षा को देखते हुए इन्होंने राजाराम को इस किले की बागडोर सौंप दी।

मराठों और मुगलों के बीच भीषण युद्ध

राजाराम प्रथम संपूर्ण दक्षिण क्षेत्र में मुगलों के खिलाफ वातावरण बनाने में लगे हुए थे और काफी हद तक इसमें सफल भी हो गए थे।

मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने सेनापति जुल्फीकार खान को यह आदेश दिया कि कैसे भी करके जिंजी किले को जीतना है और राजाराम को बंदी बनाना है।

इसी आदेश की पालना करते हुए जुल्फीकार खान ने जिंजी केले का घेराव कर लिया। यह घेराव लगभग 8 वर्षों तक रहा लेकिन वीर मराठी सैनिक हार मानने वालों में से नहीं थे।

उन्होंने राजाराम को बिल्कुल भी क्षति नहीं पहुंचने दी लेकिन मराठी सैनिकों के पास साधन बहुत सीमित थे। जबकि व मुगलों के पास असीमित साधन है जिनका फायदा उन्हें मिला और 8 वर्षों के प्रयास के बाद सन 1696 जुल्फीकार खान ने इस किले पर अधिकार जमा लिया।

मगर फिर भी मुगल सेना राजाराम प्रथम को नहीं पकड़ सकी क्योंकि इस बार फिर मराठी सैनिकों ने अविश्वसनीय पराक्रम और चतुरता दिखाते हुए राजाराम को सुरक्षित वहां से बाहर निकाल दिया।

राजाराम प्रथम सुरक्षित महाराष्ट्र पहुंच गए, जहां पर भी वह निरंतर मुगलों के खिलाफ युद्ध लड़ते रहे। धीरे-धीरे उनका शरीर उनका साथ छोड़ने लगा था क्योंकि उन्हें कई लंबी यात्राएं करनी पड़ी और इन यात्राओं के दौरान कई तरह की यातनाएं झेलनी पड़ी थी इसी वजह से उनका शरीर बहुत ही कमजोर हो चला था।

अंततः औरंगजेब ने जिंजी  किले पर अपना अधिकार कर लिया। हिंदवी और मराठा साम्राज्य के लिए 3 मार्च 1700, एक काला दिन था इस दिन छत्रपति राजाराम प्रथम ने अपने प्राण त्याग दिए।

पूरा जीवन देश प्रेम में लगाने हिंदवी साम्राज्य की स्थापना करने मराठा साम्राज्य का विस्तार करने और अपने पूर्वजों जिसमें छत्रपति शिवाजी महाराज, शाहजी भोंसले और संभाजी महाराज जैसे वीर योद्धाओं का नाम शामिल था।

उनके नाम को कभी भी इन्होंने मिट्टी में नहीं मिलने दिया और उनकी पताका को हमेशा ऊपर रखा। ऐसे शूरवीर और प्रतापी राजाराम को युगो युगो तक भारतीय इतिहास में याद रखा जाएगा।

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